ज़िंदगी तेरे सारे दस्तूर किये जा रहे हैं
बगैर अपनी सोचे, बदस्तूर किये जा रहे हैं
जता नहीं, सिर्फ बता रहें हैं
सपनों को हर वक़्त चकनाचूर किये जा रहे हैं
देखते हैं जब नहीं होता अपना चाहा हुआ
दो पल की थोड़ी उदासी छा जाती है
ज्यादा और कुछ नहीं सोचता
बस फिर से जिम्मेदारियों की समझ आ जाती है
ज़िंदगी तू मेरी भी तो है ना!
या तुम्हें हम ऐसे ही जिये जा रहे हैं
ज़िंदगी, कभी चंद लम्हें निकाल तू हमारे लिए
समझ कि ये नाचीज़ चाहता क्या है
जरा सा ग़म कभी कभार ठीक है
जरा हमें ये भी तो बता कि खुशियाँ क्या है
हमें ख़ुद से करा दे परिचय आज
हम ख़ुद को दुनिया से रूबरू किये जा रहे हैं
-प्रशांत सेठिया
One of your best poem.. superb.. proud of you
ReplyDeleteThank you 🙏😊
DeleteSuperb
ReplyDeleteThank you🙏😊
ReplyDeleteSuperb Prashant
ReplyDeleteBEST 👌 👍
ReplyDeleteThank you😊🙏
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