मैं ख़ुद से न कभी लड़ा था

बड़ी ऊँचाइयों से गिरा था
बेसुध, चोटिल सा पड़ा था
अपनों से हर बार लड़ा था
मैं ख़ुद से न कभी लड़ा था

दोष मेरे भी अनगिनत थे
एक से एक क्रमोन्नत थे
लेकिन मैं अहम से सना था
मैं ख़ुद से न कभी लड़ा था

खामियां औरो में ही देखता
हर काम मे नुक्स टटोलता
खुद का निरीक्षण जैसे गुनाह था
मैं ख़ुद से न कभी लड़ा था

किसी का भी मजाक बनाना
हालातों को गौण ठहराना
मीठा नहीं हर बोल कड़ा था
मैं ख़ुद से न कभी लड़ा था

बड़ी बड़ी डींगे हांकना
बिन कुछ किये सारा समय काटना
ढीठ सा रहा, न कभी शर्मिन्दा था
मैं ख़ुद से न कभी लड़ा था

किसी की भी बातों में आना
अपना दिमाग ना लगाना
दूषित विचारों का भंडार भरा था
मैं ख़ुद से न कभी लड़ा था

असुरक्षा से हमेशा घिरा था
सुरक्षा के लिये कुछ न किया था
मित्र नहीं, शत्रुओं में इजाफा बड़ा था
मैं ख़ुद से न कभी लड़ा था

विलम्ब हुई, लेकिन बहुत पछताया
बुढापा अब, न कोई सहारा
व्यवहारिक नहीं, खड़ूस बड़ा था
मैं ख़ुद से न कभी लड़ा था

बिन आदर, आदर कैसे मिलेगा
बिन प्रेम, प्रेम कैसे मिलेगा
जैसा बोओगे, मिलेगा वही पता था
मैं ख़ुद से न कभी लड़ा था

सामना स्वयं से करना था
ख़ुद से हर बार भिड़ना था, 
जो औरों से जा भिड़ा था
मैं ख़ुद से न कभी लड़ा था

-प्रशान्त सेठिया





39 comments:

  1. Bahut achha Likha he. Bilkil khus se lada jaaye bahut Kuch sudhar jaayega.

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    1. Ji haan, khud se ladai jaari rakhna hi jeevan hai. Thank you🙏😊

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  2. शानदार भावपूर्ण अभिव्यक्ति

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  3. Very nice...����

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  4. Eyes opener By Prashant Sethiya

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  5. Very nice and heart touching one Prashant.

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  6. Self analysis in poem,. Really good

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