महल दर्शन

महल को देख आनंदित थी
कभी डरती, छुपती सी चलती थी

वो आज के युग की बालिका थी
नहीं जुड़ पाती उसके मन की कड़ी

थे बहुत सवाल उसके मन मे
बड़े विस्मय से वो भरी पड़ी

मार्गदर्शक जो भी बोले
बड़े ध्यान से सुनती खड़ी खड़ी

कभी देखे सिंहासन और पगड़ी
पगड़ी पर किलंगी रत्नों से जड़ी

कभी देखे भाले तोपों की लड़ी
कभी देखे शेरों की चमड़ी

कभी निरखे राजा की असवारी
पालकी रानी की परदों से ढकी

कभी देखे सोने के थाली 
और राज की कैसी होती होली

सब सुन कर वो अब बोल पड़ी
कहाँ गए राजा रानी वह बोल पड़ी?

अब कहाँ गए वो ठाठ बाठ
अब कहाँ रहे वो राजपाठ

अब कहाँ रही किलों में खुशी
वो ज्ञान में अग्रसर ऋषि

अब आवाज़ न कोई सुनने वाला
न कोई रखवाली करता भाला

अब कहाँ गया वो ध्वज ऊँचा
और कहाँ गया सिरध्वज़ ऊँचा

तू ले बस प्रेरणा ही अब बाकी है 
वरना महल तो बस एकांकी है

हर महल की ख़ुद की गाथा है
नम आँखें झुका मेरा माथा है

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