मेरे मालिक तेरी मर्जी है क्या

मेरे मालिक तेरी मर्जी है क्या
तूने ही बनाई सुंदर बगिया
अब क्यूँ तू उजड़ते देख रहा
बिन शाखों के कैसे रहेगी कलियाँ
मेरे मालिक तेरी मर्जी है क्या

भूल तो बेशक हुई है हमसे
सब प्राणी को औछा लगे आँकने
मानव को घमंड श्रेष्ठता का हुआ
रहम कर ना अब ये सहा जा रहा
मेरे मालिक तेरी मर्जी है क्या

माना संहार करता है तू
पापों को सदा ही मिटाता है तू
ऐसा ही सुना है हमने बारहां
अब खिजां बिन गुलिस्तां मुरझाता हुआ
मेरे मालिक तेरी मर्जी है क्या

तू सब के मन की सुनता सदा
अन्तर्यामी तू जाने मन की व्यथा
अब अर्जी में मेरे रखूँ में क्या
ना होने दे फिर सूनी ये गलियां
मेरे मालिक तेरी मर्जी है क्या

-प्रशान्त सेठिया

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