मेरे मालिक तेरी मर्जी है क्या

मेरे मालिक तेरी मर्जी है क्या
तूने ही बनाई सुंदर बगिया
अब क्यूँ तू उजड़ते देख रहा
बिन शाखों के कैसे रहेगी कलियाँ
मेरे मालिक तेरी मर्जी है क्या

भूल तो बेशक हुई है हमसे
सब प्राणी को औछा लगे आँकने
मानव को घमंड श्रेष्ठता का हुआ
रहम कर ना अब ये सहा जा रहा
मेरे मालिक तेरी मर्जी है क्या

माना संहार करता है तू
पापों को सदा ही मिटाता है तू
ऐसा ही सुना है हमने बारहां
अब खिजां बिन गुलिस्तां मुरझाता हुआ
मेरे मालिक तेरी मर्जी है क्या

तू सब के मन की सुनता सदा
अन्तर्यामी तू जाने मन की व्यथा
अब अर्जी में मेरे रखूँ में क्या
ना होने दे फिर सूनी ये गलियां
मेरे मालिक तेरी मर्जी है क्या

-प्रशान्त सेठिया

ख़ला ही ख़ला है

ख़ला ही ख़ला है सारा आसमां
जमीं पर ख़ला, कहीं कम तो नहीं

हँसता ही रहता है हौसले में इंसां
हँसने की वजह, कोई गम तो नहीं

बेवजह ही इश्क होता है 
वजह से इश्क करने वालों में, हम तो नहीं

दर्द ढेरों है दुनिया के आँगन में
लेकिन हर पीड़ा की वजह, कोई जख्म तो नहीं

ज़ख्म दिखे तो इलाज संभव है
जो ना दिखे उसे दुरुस्त करे, ऐसा कोई मरहम तो नहीं

नशा इश्क का ही है जो तू भुलाई नहीं गई अब तक
हर नशे की वजह, गांजा या रम तो नहीं

चलो मान भी लिया कि पुरुष प्रधान समाज है
लेकिन अबला पर जुर्म करना, कोई दम तो नहीं

मिल भी लेने दो, देखो उसका भाई आया है
ये उस लड़की का ससुराल है, कोई हरम तो नहीं

शुरुआत कहीं से तो करनी होगी
ज़िंदगी की मशक्कत अभी, खत्म तो नहीं

हाँ गा लेते है कभी कभी महफिलों में
लेकिन इसका मतलब, हम पंचम तो नहीं

पत्तियाँ गीली नज़र आ रही है सुबह सुबह
छिड़काव किया लगता है, ये शबनम तो नहीं

मुझे मालूम था कि इरादा नहीं था आपका मिलने का 
लेकिन इरादा ही तो था, कोई कसम तो नहीं

जरूरतमंद को आप कौड़ी भी ना दे
ख़ाली भगवान को याद करना, कोई धरम तो नहीं

एक मे प्रतिस्पर्धा कोई कैसे करवाये
इसका मतलब वो एक भी, कोई उत्तम तो नहीं

सत्य लिखना कोई युद्ध से कम नहीं
जो इशारों पर चले, वो कोई कलम तो नहीं

सबसे हँस के बात करना फितरत है उसकी
उसको प्यार हो गया ये सोचना, आपका भरम तो नहीं

माना कि बड़ों से तमीज़ से पेश आना चाहिये
लेकिन उनकी गलती पर जो बोले, वो बेशरम तो नहीं

-प्रशान्त सेठिया
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**शब्दों के अर्थ

ख़ला - रिक्त होना, खाली होना

हरम - किसी एक पुरुष की अनेक स्त्रियों के रहने के उस स्थान को कहते हैं जहाँ अन्य मर्दों का जाना वर्जित होता है।

पंचम - विख्यात संगीतकार श्री आर. डी. बर्मन जिन्हें पंचम दा बोला करते थे

शबनम - ओंस

अपने मेरे

कहीं धूमिल ना हो जाना सपने मेरे
कहीं मुझसे दूर ना जाना ओ अपने मेरे

तू नहीं तो क्या मंज़िलें और क्या कारवां
चल रहा हूँ क्योंकि चलने लायक है बस पाँव मेरे

जमाने के पैमाने नाजायज़ से लगे
जरूरी तो बस तेरा होना लगा बाहों में मेरे

तू जाती नहीं और दोष मुझ पर सदा
सुबह शाम आधी रात है सामने तू आँखों के मेरे

नहीं है रति भर भी शिकायत तुझसे
जो भी रहा गिला वो ख़ुद से मेरे

बहुत बारी सोचा है ख़ुद को धूमिल कर दूँ
लेकिन जिम्मेदारी की गठरी है माथे पर मेरे

कहीं धूमिल ना हो जाना सपने मेरे
कहीं मुझसे दूर ना जाना ओ अपने मेरे

महल दर्शन

महल को देख आनंदित थी
कभी डरती, छुपती सी चलती थी

वो आज के युग की बालिका थी
नहीं जुड़ पाती उसके मन की कड़ी

थे बहुत सवाल उसके मन मे
बड़े विस्मय से वो भरी पड़ी

मार्गदर्शक जो भी बोले
बड़े ध्यान से सुनती खड़ी खड़ी

कभी देखे सिंहासन और पगड़ी
पगड़ी पर किलंगी रत्नों से जड़ी

कभी देखे भाले तोपों की लड़ी
कभी देखे शेरों की चमड़ी

कभी निरखे राजा की असवारी
पालकी रानी की परदों से ढकी

कभी देखे सोने के थाली 
और राज की कैसी होती होली

सब सुन कर वो अब बोल पड़ी
कहाँ गए राजा रानी वह बोल पड़ी?

अब कहाँ गए वो ठाठ बाठ
अब कहाँ रहे वो राजपाठ

अब कहाँ रही किलों में खुशी
वो ज्ञान में अग्रसर ऋषि

अब आवाज़ न कोई सुनने वाला
न कोई रखवाली करता भाला

अब कहाँ गया वो ध्वज ऊँचा
और कहाँ गया सिरध्वज़ ऊँचा

तू ले बस प्रेरणा ही अब बाकी है 
वरना महल तो बस एकांकी है

हर महल की ख़ुद की गाथा है
नम आँखें झुका मेरा माथा है

झीणी चादर माय

झीणी चादर माय
छुपाले म्हारी मांय
इती मोठी टुनिया
थां बिन म्हने न सुहाय

पग पग सट्टे
बात्यां पलटे
किणरी बात्यां ने मैं
खरी समझूँ बताय

मिनखां रो कंया
मैं समझूँ मिज़ाज
कुण है आंपारों
कुण परायो बताय

मुंडे माथे सगळा ही
मीठा मीठा बोले
किण पर भरोसो
करूँ मैं, तू बताय

थां बिन कदई ना
भटकूँ में रस्तो
बस इतणी सी बात
तू म्हने दे बताय

लगन

लगन तुझसे ये कैसी लगी
चाहने से ना मिट पाए
तुमसे मिलने को बेबस ये मन
ना जाने कैसी लगी ये लगन

ढूँढता है तुझे हर क्षण
हर पल अब मेरा ये चलन
तुमसे कैसे मिलूँ ओ सखा
मेरा हर कण करे ये यतन
तुमसे मिलने को बेबस ये मन
ना जाने कैसी लगी ये लगन

तेरे लब और झुके दो नयन
इतना काफी तेरा ये जतन
कैसे भूलूँ तुझे ओ सखा
याद में ही रहूँ मैं मगन
तुमसे मिलने को बेबस ये मन
ना जाने कैसी लगी ये लगन

है कस्तूरी तू मैं हूँ हिरन
मन चंचल में फैला भरम
तू मुझमे निहित ओ सखा
फिर भी ढूंढ़े जमीं और गगन
तुमसे मिलने को बेबस ये मन
ना जाने कैसी लगी ये लगन