इक अंधेरी रात में चाँद दिखा मुझे

 इक अंधेरी रात में चाँद दिखा मुझे
आँखें बंद थी मेरी, फिर भी दिखा मुझे

जाते जाते कह गया, फिर ना कभी मिलूँगा
फिर भी मेरे सामने, क्या कहने दिखा मुझे

तेरे फसाने जहन में, हवा तक को न एहसास होगा
तू जैसे लौट आ गया, तूफ़ां सा दिखा मुझे

मैं सो रहा था चैन से, जैसे सुबह ही उठूँगा
प्रहर रात का और सुबह मेरी हुई, जब से दिखा मुझे

मेरी बस इक नींद का, बैरी तू मुझको लगा
जब जब बुलाई नींद को, तब तब दिखा मुझे

-प्रशान्त सेठिया





मैं ख़ुद से न कभी लड़ा था

बड़ी ऊँचाइयों से गिरा था
बेसुध, चोटिल सा पड़ा था
अपनों से हर बार लड़ा था
मैं ख़ुद से न कभी लड़ा था

दोष मेरे भी अनगिनत थे
एक से एक क्रमोन्नत थे
लेकिन मैं अहम से सना था
मैं ख़ुद से न कभी लड़ा था

खामियां औरो में ही देखता
हर काम मे नुक्स टटोलता
खुद का निरीक्षण जैसे गुनाह था
मैं ख़ुद से न कभी लड़ा था

किसी का भी मजाक बनाना
हालातों को गौण ठहराना
मीठा नहीं हर बोल कड़ा था
मैं ख़ुद से न कभी लड़ा था

बड़ी बड़ी डींगे हांकना
बिन कुछ किये सारा समय काटना
ढीठ सा रहा, न कभी शर्मिन्दा था
मैं ख़ुद से न कभी लड़ा था

किसी की भी बातों में आना
अपना दिमाग ना लगाना
दूषित विचारों का भंडार भरा था
मैं ख़ुद से न कभी लड़ा था

असुरक्षा से हमेशा घिरा था
सुरक्षा के लिये कुछ न किया था
मित्र नहीं, शत्रुओं में इजाफा बड़ा था
मैं ख़ुद से न कभी लड़ा था

विलम्ब हुई, लेकिन बहुत पछताया
बुढापा अब, न कोई सहारा
व्यवहारिक नहीं, खड़ूस बड़ा था
मैं ख़ुद से न कभी लड़ा था

बिन आदर, आदर कैसे मिलेगा
बिन प्रेम, प्रेम कैसे मिलेगा
जैसा बोओगे, मिलेगा वही पता था
मैं ख़ुद से न कभी लड़ा था

सामना स्वयं से करना था
ख़ुद से हर बार भिड़ना था, 
जो औरों से जा भिड़ा था
मैं ख़ुद से न कभी लड़ा था

-प्रशान्त सेठिया





कुछ छुपा ना पाओगे तुम माँ से

चाहे दामन भरा हो मुसीबतों से
वो फिर भी सबके आँसू पौंछे
कितना भी झूठा हँस लो
कुछ छुपा ना पाओगे तुम माँ से

वो क्या क्या नहीं है करती
हम सोच ना सके सपनों में
रहे खड़ी सामने दुर्गा सी
ताकि हँसते रहें हम कष्टों में

करो आदर इस मूरत का
वरना याद करोगे रो के
जानों ख़ुद को किस्मत वाला
जो पड़ पाती आवाजें माँ की कानों में

माना तुम घिरे हुवे सौ दुःखों से
मन व्यथित हमेशा रहता
लेकिन गुस्सा सारा क्यूँ माँ पर
कभी झाँक तू ख़ुद के करमों में

-प्रशांत सेठिया

आज एक और पड़ाव पूरा होने को है

आज एक और पड़ाव पूरा होने को है
भ्रमण एक और जंगल का पूरा होने को है

जंगल में भी भावनाएं शायद काम कर जाए
अपेक्षाएं लेकिन इधर बहुत घनघोर होने को है

कर्मचारी तू उठ और लग जा काम पूरा करने में
वरना बातों ही बातों में बड़ा शोर होने को है

क्या करेगा रात में सोके, थोड़ा माथा और खपा
माँ बोले थोड़ा सोजा, देख बाहर भोर होने को है

जीने के लिए काम है या काम के लिए जीना
बस साल के अंत मे इसी पर गौर होने को है

तेरा बोला शायद सही भी हो लेकिन
साहब ने जो बोल दिया वही तौर होने को है

ठीक है साहब लोगों का ध्यान देना लेकिन
ज्यादा ध्यान दिया तो वो ignore ही होने को है

-प्रशान्त सेठिया

आज एक और पड़ाव पूरा होने को है


मंगल पर मंगल

मंगल पर मंगल ढूंढ़ने वालों
जरा मंगल यहाँ तो करलो

जिस धरती पर जन्मे हो
उसका फ़र्ज़ अदा तो करलो

सबके मंगल का सोचलो
अमंगल सबका मिटालो

भगवान भी बैठा सोचे
क्या करे मनुष यहाँ आके

जिसका हृदय बना था मुलायम
क्यों बदला अब उसका रसायन

जिसको है घड़ा मैंने उत्तम
वो ही खो रहा नियंत्रण

सबका मंगल कैसे हो पाए
क्यूँ ना चित्त अब इसमें लगाए

प्रयत्न क्यूँ व्यर्थ तुम करते
क्या करोगे उधर पहुँच के

क्या जगह इधर अभी कम है
जो जाकर उधर धमाके करने

पहले जीना इधर तो सीखो
फिर ज्ञान उधर का लिखो

कहाँ तक विस्तार करोगे
दो हाथ से कितना भरोगे

पहले अंतरमन की तो सुनलो
वरना ख़ाक है कुछ भी करलो

-प्रशांत सेठिया



मन नहीं करता

बिन कुछ किए, दिन-ब-दिन आलसी लगे समां
और बोले अगर कोई नहाने को तो
मन नहीं करता

आलम फिर भी खुशमिजाज है यहाँ
और कहते है कि कहीं भी जाने को
मन नहीं करता

तू ही मेरा जहां, तुम बिन न कोई कारवां
और बगैर तेरे कुछ भी करने को
मन नहीं करता

रात आधी जहाँ, सोने का उत्तम समां
और तेरे बाँह के तकिये बिना सोने को
मन नहीं करता

सुबह हो गई, पर तू है नहीं यहाँ
और तेरे बिन चाय पीने को
मन नहीं करता

बेशक जिंदा हूँ, धड़कने काम कर रही है अपना
और तुम बिन यूँ ही हर रोज जीने को
मन नहीं करता

जाने में तो चला जाऊं, जिधर भी बोला जाए वहाँ
लेकिन बगैर इज्जत के किधर भी जाने को
मन नहीं करता

चलो मान भी लूँ जो भी तू बोले गर हो वो सपना
लेकिन हकीकत में ऐसा कुछ भी मानने को
मन नहीं करता

-प्रशान्त सेठिया



बता देना

शरारत, इशारे, मिलने के इरादे
याद याद और बस तेरी ही यादें
वैसे याद तो हमेशा करते हो तुम हमे
मिले कभी फुरसत तो जता देना

मौसम वो सारे जो तेरे संग गुजारे
वो झिलमिल सितारे, गवाह है हमारे
कुछ कुछ क्या सबकुछ जहन में है
तुम्हे कोई पल खास याद हो तो बता देना

वक्त, जगह, पोशाक और अवधि
किस मुलाकात पर क्या बात हुई
तुझ संग बीते हर एक पल का ब्यौरा है
तुम्हें कुछ याद न आये तो बता देना

अकेला खुश रहना मुकद्दर हमारा
ये इरादा भी था तुम्हारा
नहीं करता कोशिशें अब तुमसे मिलने की
गर तुम वही मुलाकातें चाहो तो बता देना

अब तो मैं भी तुझसा हो गया
कोई भी वादा मैं निभा न पाया
तुमने जब से अपना वादा तोड़ा है
मैंने कोई निभाया हो तो बता देना

-प्रशान्त सेठिया



मेरे मालिक तेरी मर्जी है क्या

मेरे मालिक तेरी मर्जी है क्या
तूने ही बनाई सुंदर बगिया
अब क्यूँ तू उजड़ते देख रहा
बिन शाखों के कैसे रहेगी कलियाँ
मेरे मालिक तेरी मर्जी है क्या

भूल तो बेशक हुई है हमसे
सब प्राणी को औछा लगे आँकने
मानव को घमंड श्रेष्ठता का हुआ
रहम कर ना अब ये सहा जा रहा
मेरे मालिक तेरी मर्जी है क्या

माना संहार करता है तू
पापों को सदा ही मिटाता है तू
ऐसा ही सुना है हमने बारहां
अब खिजां बिन गुलिस्तां मुरझाता हुआ
मेरे मालिक तेरी मर्जी है क्या

तू सब के मन की सुनता सदा
अन्तर्यामी तू जाने मन की व्यथा
अब अर्जी में मेरे रखूँ में क्या
ना होने दे फिर सूनी ये गलियां
मेरे मालिक तेरी मर्जी है क्या

-प्रशान्त सेठिया

ख़ला ही ख़ला है

ख़ला ही ख़ला है सारा आसमां
जमीं पर ख़ला, कहीं कम तो नहीं

हँसता ही रहता है हौसले में इंसां
हँसने की वजह, कोई गम तो नहीं

बेवजह ही इश्क होता है 
वजह से इश्क करने वालों में, हम तो नहीं

दर्द ढेरों है दुनिया के आँगन में
लेकिन हर पीड़ा की वजह, कोई जख्म तो नहीं

ज़ख्म दिखे तो इलाज संभव है
जो ना दिखे उसे दुरुस्त करे, ऐसा कोई मरहम तो नहीं

नशा इश्क का ही है जो तू भुलाई नहीं गई अब तक
हर नशे की वजह, गांजा या रम तो नहीं

चलो मान भी लिया कि पुरुष प्रधान समाज है
लेकिन अबला पर जुर्म करना, कोई दम तो नहीं

मिल भी लेने दो, देखो उसका भाई आया है
ये उस लड़की का ससुराल है, कोई हरम तो नहीं

शुरुआत कहीं से तो करनी होगी
ज़िंदगी की मशक्कत अभी, खत्म तो नहीं

हाँ गा लेते है कभी कभी महफिलों में
लेकिन इसका मतलब, हम पंचम तो नहीं

पत्तियाँ गीली नज़र आ रही है सुबह सुबह
छिड़काव किया लगता है, ये शबनम तो नहीं

मुझे मालूम था कि इरादा नहीं था आपका मिलने का 
लेकिन इरादा ही तो था, कोई कसम तो नहीं

जरूरतमंद को आप कौड़ी भी ना दे
ख़ाली भगवान को याद करना, कोई धरम तो नहीं

एक मे प्रतिस्पर्धा कोई कैसे करवाये
इसका मतलब वो एक भी, कोई उत्तम तो नहीं

सत्य लिखना कोई युद्ध से कम नहीं
जो इशारों पर चले, वो कोई कलम तो नहीं

सबसे हँस के बात करना फितरत है उसकी
उसको प्यार हो गया ये सोचना, आपका भरम तो नहीं

माना कि बड़ों से तमीज़ से पेश आना चाहिये
लेकिन उनकी गलती पर जो बोले, वो बेशरम तो नहीं

-प्रशान्त सेठिया
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**शब्दों के अर्थ

ख़ला - रिक्त होना, खाली होना

हरम - किसी एक पुरुष की अनेक स्त्रियों के रहने के उस स्थान को कहते हैं जहाँ अन्य मर्दों का जाना वर्जित होता है।

पंचम - विख्यात संगीतकार श्री आर. डी. बर्मन जिन्हें पंचम दा बोला करते थे

शबनम - ओंस

अपने मेरे

कहीं धूमिल ना हो जाना सपने मेरे
कहीं मुझसे दूर ना जाना ओ अपने मेरे

तू नहीं तो क्या मंज़िलें और क्या कारवां
चल रहा हूँ क्योंकि चलने लायक है बस पाँव मेरे

जमाने के पैमाने नाजायज़ से लगे
जरूरी तो बस तेरा होना लगा बाहों में मेरे

तू जाती नहीं और दोष मुझ पर सदा
सुबह शाम आधी रात है सामने तू आँखों के मेरे

नहीं है रति भर भी शिकायत तुझसे
जो भी रहा गिला वो ख़ुद से मेरे

बहुत बारी सोचा है ख़ुद को धूमिल कर दूँ
लेकिन जिम्मेदारी की गठरी है माथे पर मेरे

कहीं धूमिल ना हो जाना सपने मेरे
कहीं मुझसे दूर ना जाना ओ अपने मेरे

महल दर्शन

महल को देख आनंदित थी
कभी डरती, छुपती सी चलती थी

वो आज के युग की बालिका थी
नहीं जुड़ पाती उसके मन की कड़ी

थे बहुत सवाल उसके मन मे
बड़े विस्मय से वो भरी पड़ी

मार्गदर्शक जो भी बोले
बड़े ध्यान से सुनती खड़ी खड़ी

कभी देखे सिंहासन और पगड़ी
पगड़ी पर किलंगी रत्नों से जड़ी

कभी देखे भाले तोपों की लड़ी
कभी देखे शेरों की चमड़ी

कभी निरखे राजा की असवारी
पालकी रानी की परदों से ढकी

कभी देखे सोने के थाली 
और राज की कैसी होती होली

सब सुन कर वो अब बोल पड़ी
कहाँ गए राजा रानी वह बोल पड़ी?

अब कहाँ गए वो ठाठ बाठ
अब कहाँ रहे वो राजपाठ

अब कहाँ रही किलों में खुशी
वो ज्ञान में अग्रसर ऋषि

अब आवाज़ न कोई सुनने वाला
न कोई रखवाली करता भाला

अब कहाँ गया वो ध्वज ऊँचा
और कहाँ गया सिरध्वज़ ऊँचा

तू ले बस प्रेरणा ही अब बाकी है 
वरना महल तो बस एकांकी है

हर महल की ख़ुद की गाथा है
नम आँखें झुका मेरा माथा है

झीणी चादर माय

झीणी चादर माय
छुपाले म्हारी मांय
इती मोठी टुनिया
थां बिन म्हने न सुहाय

पग पग सट्टे
बात्यां पलटे
किणरी बात्यां ने मैं
खरी समझूँ बताय

मिनखां रो कंया
मैं समझूँ मिज़ाज
कुण है आंपारों
कुण परायो बताय

मुंडे माथे सगळा ही
मीठा मीठा बोले
किण पर भरोसो
करूँ मैं, तू बताय

थां बिन कदई ना
भटकूँ में रस्तो
बस इतणी सी बात
तू म्हने दे बताय

लगन

लगन तुझसे ये कैसी लगी
चाहने से ना मिट पाए
तुमसे मिलने को बेबस ये मन
ना जाने कैसी लगी ये लगन

ढूँढता है तुझे हर क्षण
हर पल अब मेरा ये चलन
तुमसे कैसे मिलूँ ओ सखा
मेरा हर कण करे ये यतन
तुमसे मिलने को बेबस ये मन
ना जाने कैसी लगी ये लगन

तेरे लब और झुके दो नयन
इतना काफी तेरा ये जतन
कैसे भूलूँ तुझे ओ सखा
याद में ही रहूँ मैं मगन
तुमसे मिलने को बेबस ये मन
ना जाने कैसी लगी ये लगन

है कस्तूरी तू मैं हूँ हिरन
मन चंचल में फैला भरम
तू मुझमे निहित ओ सखा
फिर भी ढूंढ़े जमीं और गगन
तुमसे मिलने को बेबस ये मन
ना जाने कैसी लगी ये लगन

निगाहें

ये निगाहें, जैसे सब कुछ कहे
न है जुबान इसकी
न है आवाज़ इसकी
भावना की धारा फिर भी निरंतर बहे
ये निगाहें, जैसे सब कुछ कहे

बोली को अक्सर कोई
अनसुना करे
शैली को अक्सर कोई
अनदेखा करे
लेकिन इनसे तो बचना जैसे मुश्किल रहे
ये निगाहें, जैसे सब कुछ कहे

मन मे है क्या 
वो भी इनसे दिखे
जो दिल मे नहीं 
वो भी इनसे दिखे
सच के अलावा इनमे कुछ न बसे
ये निगाहें, जैसे सब कुछ कहे

जिनसे से है प्रीत
उनसे ये ना हटे
जो भी है उतरा मन से
उन पर ये ना टिके
आँखों की भाषा कोई मुश्किल से पढ़े
ये निगाहें, जैसे सब कुछ कहे