हाँ मैं तो पत्थर ही हूँ
कुछ नही बोल पाऊँगा
बर्ताव भले कैसा भी हो
सहनशील हूँ सहता चला जाऊँगा
चोट भले ही करना मुझ पर
संभल के रहना लेकिन
हवा में उड़ता मेरा टुकड़ा कभी भी
आँख में घुसने से पहले
तनिक विचार भी नहीं करेगा
और मैं रोक भी नहीं पाऊँगा
हर मौसम ओ मुश्किल में कहीं नहीं जाऊँगा
इंसान तेरे जैसे में कभी पीठ नहीं दिखाऊँगा
तू तराश ले मुझे और
मंदिर में रख भले
बिछड़े टुकड़ों को भला
मैं कैसे भूल पाऊँगा
टुकड़े जब मेरे
राहों में बिखरे होंगे
राहगीर के पाँव से
कुचलता उन्हें कैसे देख पाऊँगा
माना मेरी क्षमता है
भार सहना लेकिन
कमजोर निर्माण का दोष
मैं कैसे सह पाऊँगा
हाँ हूँ तो पत्थर ही
कुछ बोल नहीं पाऊँगा
Wonderful Poem yet again
ReplyDeleteThank you🤗🙏
DeleteWah wah wah
ReplyDeleteMandir me rakh le bhale,
Bichde tukdo ko bhala me kaise bhul paunga !!!!
Superb👍👍👍👍