अकेलापन

अकेले बिताऊँ मैं पहर दर पहर
छत पे बैठूँ और देखूँ ये सारा शहर
अपने अंदर को टटोलूँ है कहाँ पे ज़हर
क्यूँ अनुभव करता हूँ अकेलापन अक्सर

सुन्दर है शहर फिर क्या है कसर
जगमग है रातें फिर दिल क्यूँ है बंजर
कुछ तो छुपा है जो न आता नजर
कैसे बनाऊँ अपने इस मन को अविरल

जो न अच्छा लगे तो क्यूँ बैचेनी का बवंडर
क्यों इतना मन मे फैला विचारों का अंतर
क्यूँ दिल से जाता नहीं इक अनजाना सा डर
कैसे समभाव से हो मेरा गुजर बसर

क्यूँ ना घुल पाता सबसे, 
कैसे हो जाऊँ सबसे मुखर
उधड़े हुए दिल की में कैसे लूँ खबर
कैसे पेश आऊँ बनके सबसे मधुर
कुछ समझ नही आता
कि कब तक रहेगा ऐसा ही मंजर

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