मुसाफ़िर तेरा

साथी बिना तेरे मुझको नहीं है कोई आसरा
भटकता फिरूँ मैं, हूँ जैसे कोई बावरा

अंधेरा है पसरा, नहीं दिन है उजला मेरा
रातें जगाती, यही अब है मंजर मेरा

यादें रुलाती है जिनमें था हँसता बसेरा तेरा
जीवन का सदमा वो गहरा यूँ जाना तेरा

तुझसा मिला है न मुझको अभी तक कोई दूसरा
शायद मेरा दिल नही मेरे बस में, हो चुका है तेरा

सावन अभी बारह महिनों ही छाया हुआ सा
घनघोर मौसम न लगता ये ढ़लता हुआ सा

मन में मूरतिया तेरी और हाथ में माला मनका
धोखा मैं दे रहा हूँ तुझको या है वो सांवरा

गरिमा नहीं शेष मुझमें ये बस बतला रहा
ढीठ हो चुका मैं तेरे बिन अब न जिया जा रहा

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