पहाड़ों के पत्थर

ये बारिश के पानी का आलम तो देखो
पहाड़ों के पत्थर भी डरने लगे है
कहीं संग बहाके न ले जाये मुझको
या घिस के कहीं कोई मंदिर में न रख दे

माना कि मुझमें न कोई उपज है
पर आज़ादी की तो मुझको भी समझ है
गर मैं स्थापित हो गया मंदिर में
तो बाहर आना मुमकिन होगा कैसे

मंदिर के बाहर जो बैठे है विचलित
अपनी जान से होते हैं वंचित
वो भी पहाड़ों पे आते है रोते है
प्रतिध्वनि उनकी अब कौन सुनेगा

गर मुझको मंदिर में कोई रख देगा
सोचो कोई भी मौसम मुझे न मिलेगा
न सुन सकूँगा मैं पत्तों की बातें
और ना ही वो बारिश का नज़ारा भी होगा

रात को रहना पड़ेगा तालों में
जकड़ा रहा ना पहले ऐसा कभी मैं
गर कोई भक्त मुझे ले भी गया बाहर
समझो भौर होने से पहले हंगामा तैयार मिलेगा

जो बच भी गया मैं मंदिर जाने से
नदियों में ठोकर खाता रहूँगा
या कोई रस्ते का रोड़ा बनूँगा
और किसी रुन्दन का कारण भी बनूँगा

मुझको ख़ुशी है कि मेरी वजह से
बहुतों ने सूरज की पहली किरणें है देखी
पर मुझे गम है मेरा यूँ बिल्कुल जड़ सा होना
मैं किसी डूबते सूरज को कभी ना रोक पाया

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