कहाँ भूल पाया

वो सुनसान सी
जो इक रात थी
मैं उस को अभी तक
कहाँ भूल पाया

मेरा यूँ बुलाना
तेरा मान जाना
मैं उन पलों को
कहाँ भूल पाया

वो रात आधी और चाँद पूरा
मेरे पास भी था चमकता सितारा
मैं उस सितारे को
कहाँ भूल पाया

वो शरमाता चेहरा
चुप रहने का इशारा
मैं उस इशारे को
कहाँ भूल पाया

मिलते ही तुमसे
तुझे बाँहों में भरना
मैं उन इरादों को
कहाँ भूल पाया

और ठुडी पकड़ के
माथा चुम जाना
मैं वो सारी हरकत
कहाँ भूल पाया

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