महकमें क्यूँ सुलगने लगे
जब कोई अपने पनपने लगे
क्या उनमें इतने शोले थे जो
अब जोरों से धधकने लगे
दुरी ऐसे कब आ गई जो
मिलने को भी तरसने लगे
बहुत समझ वाले लगे थे जो
जाने अब क्यूँ बहकने लगे
मुझसे सारे हँस के मिलते थे
तो होंठ मेरे भी हंसने लगे
नहीं मालूम था हँसते चेहरे भी
अंदर से क्रूर निकलने लगे
हँस के धोखा देना उनको
न जाने कैसे आम लगे
मेरा अब उनसे उबरने की
कोशिश हर दिन और शाम लगे
तेरी पीढ़ी तुझसे ही सीखेगी
क्यूँ इतना तुम ना सोच सके
चाह फूलों की रखते हो फिर
क्यूँ काँटे बो के बतियाने लगे
जब कोई अपने पनपने लगे
क्या उनमें इतने शोले थे जो
अब जोरों से धधकने लगे
दुरी ऐसे कब आ गई जो
मिलने को भी तरसने लगे
बहुत समझ वाले लगे थे जो
जाने अब क्यूँ बहकने लगे
मुझसे सारे हँस के मिलते थे
तो होंठ मेरे भी हंसने लगे
नहीं मालूम था हँसते चेहरे भी
अंदर से क्रूर निकलने लगे
हँस के धोखा देना उनको
न जाने कैसे आम लगे
मेरा अब उनसे उबरने की
कोशिश हर दिन और शाम लगे
तेरी पीढ़ी तुझसे ही सीखेगी
क्यूँ इतना तुम ना सोच सके
चाह फूलों की रखते हो फिर
क्यूँ काँटे बो के बतियाने लगे
Superb!!! Nice one
ReplyDeleteThank-you🙏🏻😊
DeleteSuperb poet.. keep gong on.. let me know when you complete your collection..will order for publication
ReplyDeleteThank-you🙏🏻😊
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