पत्ता

पत्ता हरा था
शाख से जुड़ा था
मौसम खुशनुमा था
तो पत्ते को क्या गम था
बारिशें नहला देती थी
हवा संग खेल लेता था
पेड़ से जुड़ा था
इसलिए अब भी हरा था

कभी कली तो कभी फूल
और कभी फलों संग हँसता था
बंदरवार रंगोली तो कभी
पूजा में सजता था

मौसम बदलने लगे
हवाओं के मिज़ाज भी
नर्म से गर्म होने लगी
पत्तों को सताने लगी
वही हवाएं जिन संग खेले थे
पत्ते अब सूख के
सब सुख भूले थे

उसको तो झड़ना ही था
पेड़ से दूर होना ही था
पर दुःख झड़ने से ज्यादा
झड़ने के कारण से था
पेड़ से टूट चूका था
पत्ता अब हरा न था

पत्ता अब जमीन पे सोया था
हवा संग वह ख़ूब रोया था
कभी राहगीर के पाँव से दबा तो
कभी आवारा पशु का निवाला था
अगर बच भी गया तो
अब वह मिट्टी सा भूरा था
और अंत में मिट्टी में मिला
उसका सारा चूरा था

दोष किसको दे पत्ता
क्यूँ गई शाख से सत्ता
हवा जिसके संग खेला
या मौसम जो था बदला
गलत होगा दोष किसी पे मढ़ना
वक़्त के साथ था सब को चलना

मौसम को फ़िक्र पेड़ की थी
जरुरत उसे नए पत्तों की थी
पुराने नहीं जाएंगे तो
सीमित जगह पे नए कैसे आएंगे
पत्ते को अपना अतीत याद करके
वर्तमान खुशनुमा करना है
और यह भाव मन में रख के
सबको बस यही कहना है कि

मिट्टी से उपजा हूँ
और उसमे ही मिल जाऊँगा
जब तक जिया हूँ
हँस के जी जाऊँगा
सूख के टूटने से अच्छा
किसी औषध में काम आऊँगा
किसी मरीज के लिए
सिलबट्टे पे घिसा जाऊँगा

19 comments:

  1. Wah Kya likha he Prashant ,keep it up

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  2. गहरी बात सरलता से कह दी 👌👍

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  3. Awesome.... It's very in depth 👍

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  4. Just loved the last para.... 👍👍👍

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  5. Very nice prashant ji..keep it up..👍🏼☺

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  6. पत्ता हरा था , Realy Very Nice 👍

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