बिटिया

अचंभित उसके नैना, सूरत से भोली भाली
बाबा के संग जो खेली, आँचल में जिसको पाली

गिरती उठती और चलती, बाबा की पकड़े ऊँगली
मींचे वो दोनों अखियाँ, मुँह में डाले जब इमली

बाबा की बिटिया है वो, ममता ने जिसको ढाली
फली फूली नाजों से, बाबा की प्यारी लाली

सपने साकार हो उसके, बस फैलाये खुशहाली
घर कौनसा होगा उसका, जब छोड़े गली बाबुल की

जिस घर में भी जाये, वो कहलाये भाग्यशाली
रिश्ते आनंदित कर दे, खुशियों से भर जाये झोली

ससुराल में मुस्काये हर पल, न होये आँखें गीली
मायके की याद न आए, हो राखी होली या दिवाली

                        @sethipras

चलना

रुकता चलूँ
संभलता चलूँ
अपनी वाणी को
परखता चलूँ

आहट सुनूं
पीछे मुडूं
कोई बुलाये
तो मैं भी रुकूँ

पलके भरूँ
हँस के जीऊँ
औरों के सुख दुःख का
साझी बनू

जब भी कहूँ
कुछ सच्चा कहूँ
वरना मैं लब पे
चुप्पी धरूँ

थाली पे बैठूँ
झूठा न छोड़ूँ
दाने दाने को
पुरष्कृत करूँ

सबसे जुड़ूं
पाँव जमीं पे धरूँ
दिखावे की आँधी से
बचता चलूँ

खाली जब बैठूं
मैं चिंतन करूँ
मानवता मेरी
कैसे उत्कृष्ट करूँ

मेरा सावन

ऋतुएँ आए और जाए
कोई मौसम मुझको न भाए
सावन मेरा मेरे संग है
जो हर पल बरसता ही जाए

झोंका हवा का जो आए
आँसू की धारों को सुखाए
ये नादां हवा क्यूँ न जाने
लकीरें उससे मिट न पाए

ये निशानी तुझसे क्या छिपाएं
तू बोले तो सब कुछ बताएं
सावन की वो भीगी रातें
अब हर रात ही भीग जाए

तेरा चेहरा नज़र से ना जाए
हरदम वो मुझे बहकाए
मेरे मन का ये बचपन तो देखो
तेरे नैनों में ही डूब जाए

मेरा सावन जो भी देख पाए
वो भी उसमे ही भीग जाए
और पूछे अचंभित होकर के
क्या ऐसे कोई सावन मे नहाए

ज़िन्दगी जितना कहाँ चल पाउँगा

कहीं तो रुक ही जाऊँगा
ज़िन्दगी जितना कहाँ चल पाउँगा
पग पग संभालता हूँ वैसे तो मगर
ना जाने कौनसे कंकर से टकरा जाऊँगा
ज़िन्दगी जितना....

सबको चुकानी पड़ती है कीमतें
हर एक सफलता की
कीमत गर खुद ज़िन्दगी हो जाए
तो बुलंदियों का क्या कर पाउँगा
ज़िन्दगी जितना...

सफलता की आग में
रिश्तों के महल जले हैं
क्या उसी की राख पे
नये आशियानें फिर से बाँध पाउँगा
ज़िन्दगी जितना...

मन शान्त नहीं होता
जब भीतर में उद्वेग भरा हो
हर क्षण आवेश के आवेग से
क्या कभी मुक्त हो पाउँगा
ज़िन्दगी जितना...

कोल्हू के बैल सा चला जा रहा हूँ
आँखों पे पट्टी और पांवों में चक्कर
क्या कभी उसी तेल को अपने सर पे
बरामदे में बैठ के लगवा पाउँगा
ज़िन्दगी जितना...

कहने को तो, अपनों की गिनती बढ़ रही है
पर हकीकत में उतना अपनापन है कहाँ
झूठे दिखावे में धोखा किस को दे रहा हूँ
क्या कभी इतना सा विचार कर पाउँगा
ज़िन्दगी जितना...

मेरी भावना

महकता रहूँ फूलों की तरह
काँटों से ना घबराऊँ
चुनता चलूँ छोटी छोटी खुशियाँ
जीवन को गुलिस्ताँ बनाऊँ

सीखूं समझूँ छोटी छोटी बातें
खुद को बड़ा ना बनाऊँ
बचपन मेरा जाये कभी ना
हर हाल में मैं खिलखिलाऊँ

सपने जुड़े हो जमीं से मेरे सारे
नामुनासिब ख़याल न आये
मेहनत करूँ चींटी के तरह मैं
और सपनों को पूरा कर पाऊँ

बुरा न सोचूँ किसी के भी खातिर
भला गर मैं ना कर पाऊँ
लीन रहूँ अपने ही करम में
और सबका मैं हाथ बंटाउँ

कोशिश करूँ गर कुछ दे सकूँ मैं
जिम्मेदारी से जीवन बिताऊँ
गैरों की मुस्कान अच्छी लगे और
खुशियाँ सब में बाँट पाऊँ

आदर करूँ मैं सारे बड़ों का
छोटों में प्यार लुटा पाऊँ
ध्यान रखूँ बस एक बात मैं
किसी क्लेश का कारण न बन जाऊँ

अच्छे से जानू तो राय भी दे दूँ
वरना मैं चुप हो जाऊँ
बिना ज्ञान के यूँ ही किसी को
मैं कभी भी कहीं न उलझाऊँ

सारे धरम का आदर करूँ मैं
नफरत कभी न फैलाऊँ
खुशियाँ लगे मुझको सबकी प्यारी
सबके दुःख में मैं शरीक हो पाऊँ

नाजों से जिसने मुझको पाला
सेवा मैं उनकी कर पाऊँ
कर्जा है जो कभी न चुकने वाला
बस फ़र्ज़ मैं अपना निभा पाऊँ

रहमत रहे तेरी मुझपे हमेशा
पूरी आस्था से ध्यान लगाऊँ
आँखें हो नम और मस्तक झुका सा
जब भी तेरा दीदार पाऊँ

पत्ता

पत्ता हरा था
शाख से जुड़ा था
मौसम खुशनुमा था
तो पत्ते को क्या गम था
बारिशें नहला देती थी
हवा संग खेल लेता था
पेड़ से जुड़ा था
इसलिए अब भी हरा था

कभी कली तो कभी फूल
और कभी फलों संग हँसता था
बंदरवार रंगोली तो कभी
पूजा में सजता था

मौसम बदलने लगे
हवाओं के मिज़ाज भी
नर्म से गर्म होने लगी
पत्तों को सताने लगी
वही हवाएं जिन संग खेले थे
पत्ते अब सूख के
सब सुख भूले थे

उसको तो झड़ना ही था
पेड़ से दूर होना ही था
पर दुःख झड़ने से ज्यादा
झड़ने के कारण से था
पेड़ से टूट चूका था
पत्ता अब हरा न था

पत्ता अब जमीन पे सोया था
हवा संग वह ख़ूब रोया था
कभी राहगीर के पाँव से दबा तो
कभी आवारा पशु का निवाला था
अगर बच भी गया तो
अब वह मिट्टी सा भूरा था
और अंत में मिट्टी में मिला
उसका सारा चूरा था

दोष किसको दे पत्ता
क्यूँ गई शाख से सत्ता
हवा जिसके संग खेला
या मौसम जो था बदला
गलत होगा दोष किसी पे मढ़ना
वक़्त के साथ था सब को चलना

मौसम को फ़िक्र पेड़ की थी
जरुरत उसे नए पत्तों की थी
पुराने नहीं जाएंगे तो
सीमित जगह पे नए कैसे आएंगे
पत्ते को अपना अतीत याद करके
वर्तमान खुशनुमा करना है
और यह भाव मन में रख के
सबको बस यही कहना है कि

मिट्टी से उपजा हूँ
और उसमे ही मिल जाऊँगा
जब तक जिया हूँ
हँस के जी जाऊँगा
सूख के टूटने से अच्छा
किसी औषध में काम आऊँगा
किसी मरीज के लिए
सिलबट्टे पे घिसा जाऊँगा

तू ही बता

तुझ से नाराज़ रहूँ
या फिर नया आगाज़ करूँ
चलना मुझे नहीं आता
तू ही बता
तेरी यादों के समन्दर पे
डूब जाऊँ या तैरता रहूँ

रंगत बदलती रहती है
दिल की हर पल
मिज़ाज़ नहीं रहते एक से
कभी तू तो
कभी तेरा खयाल
जहन में रहता ही है
तू ही बता
तुझे याद करता रहूँ या
भूलने की नाकाम कोशिश करूँ

अनगिनत मोड़ है
इस ज़िन्दगी की राह में
हर दूसरा घुमाव
तेरी तरफ मुड़े
सोचने लगता हूँ
हर मोड़ पे
कि मंजिल कहीं
पीछे तो रह नहीं गई
तू ही बता
कि अब मैं चलता चलूँ या
इंतज़ार में तेरे कहीं
किसी मोड़ पे रुकूँ

यक़ीनन खुश ही रहेगी
बिना मेरे ये तेरी जिंदगी
क्योंकि मेरा कोई काम
तुम्हे दुःख दे
ऐसा हो ही नहीं सकता
भले मेरा जाना ही क्यों न हो
तू ही बता
कि तू खुश है ना,
यही विचारुं
या कुछ और सोच के
आँखें नम करूँ

बचपन के बारिश की यादें

माँ अब भी क्या मैं तुम्हे बारिश में
हमेशा याद आता हूँ क्या

वैसे ही कोई बेपरवाह अब भी मेरे जैसे
पनाल के नीचे धार का साथ देता है क्या

क्या अब भी कोई पकोड़े बनने का इंतज़ार
खाली थाली में धनिये की चटनी लिए करता है क्या

क्या अब भी कोई बौछारों से
अपने कपड़े भीगोता है क्या

क्या अब भी कोई भीगे कपड़ो को
उतारे बिना दिन भर तेज़ बारिश का
इंतज़ार करता है क्या

क्या अब भी कोई गीले पाँवों से
रसोई तक कुछ खाने को जाता है क्या

क्या अब भी कोई पागलों जैसे भीगे हुवे
जोर जोर से गाता है क्या

क्या अब भी कोई आँगन के नाले बंद करके
आँगन को तालाब बनाता है क्या

और तालाब बनाके उसमें
तैरने के करतब कोई दिखाता है क्या

क्या अब भी कोई बारिश के बाद
लाल मखमली कीड़े काँच के डिब्बे में भरता है क्या

क्या अब भी कोई बारिश होने के बाद
मिट्टी के महल बनाता है क्या

क्या अब भी कोई घर की दीवारों पे
गीली मिट्टी से कलाकृतियां बनाता है क्या

क्या अब भी कोई इंद्रधनुष को देखने के लिए
बारिश के बाद घंटो छत पे बैठा रहता है क्या

क्या अब भी कोई बारिश से हुई सर्दी में
तुलसी अदरक के काढ़े का इंतज़ार करता है क्या

क्या अब भी कोई गीली मिट्टी में
सुबह सुबह ग्वार लगाता है क्या

क्या बारिश में विद्यालय ना जाने के बहाने
आज भी कोई बनाता है क्या

और क्या अब भी कोई बारिश के बाद
रेत के टीलों पे घूमने जाता है क्या

और क्या अब भी कोई सावन का इंतज़ार
मेरी तरह करता है क्या

वहाँ बारिश बहुत कम थी पर शौक रहता था
यहाँ बारिश की कमी नहीं पर
माँ की डाँट बिना नहाने का मजा भी कहाँ