कई दफ़ा

तूझ संग बातें करते करते न जाने कैसे
अपना घर पार कर चुका हूँ कई दफ़ा
दिन भर तुझ में खो के न जाने कैसे
ख़ुद को भुला चुका हूँ कई दफ़ा

प्यारे ढ़ंग से चल रहा था अपना किस्सा
किसी को कानों कान खबर न थी
जब से तू गई है न जाने कैसे
अनजाने में तुझे पुकार चुका हूँ कई दफ़ा

राहत से आहत कोई भला क्यों होने लगा
मुझसे पूछो सन्नाटा दिल में कैसे भरने लगा
ज़िन्दगी चल रही है
न जाने कैसे साँसे चलते हुवे भी
मौत से रूबरू हो चुका हूँ कई दफ़ा

अश्कों का आलम ये हुआ राजा
कि अब तो वो भी मुझसे ख़फ़ा है
तुम्हारी तस्वीरों को देख के रोने वाला अब
न जाने कैसे ठहाके मार के
हँस चुका है कई दफ़ा

कबीर के माला वाले दोहे
अच्छे लगते थे मेरे को भी
मस्ती में मैं भी सुनता था किस्से ऐसे
तेरे जाने के बाद न जाने कैसे
हरी नाम से ज्यादा तुझे लिख चुका हूँ कई दफ़ा

किसी के अल्फ़ाज़ उधार लेके,
सब को हर सवेरे
नित नया सलाम भेजता था
कोई कैसे इतना सब लिख पाता है
ये सब एक मेरे को पहेली लगता था
तेरी जुदाई से न जाने कैसे
मैं ये पहेली सुलझा चुका हूँ कई दफ़ा

आवाजें तो बहुत आई थी मेरे दिल से
कि तुम कैसी हो,
खाना हुआ क्या,
उठ गयी क्या,
गुस्सा है क्या वगैरह वगैरह
जिसे सुन के भी तूने दरकिनार किये होंगे
रास्ते जरूर बदल गये है तेरे और मेरे
मगर दोनों के दिल आज भी ख़ुशामद पूछते होंगे
रिश्तें कहाँ खून के ही निभाए जाते है
ये तुझ से बेहतर कौन जानेगा
वैसे तो तू कुछ नहीं थी मेरी
पर दिल ही दिल में
तुझे अपना हमराही मान चुका था कई दफ़ा

अपनों को धोखा हम दोनों ने ही दिया था
बात बात पे झूठे बहाने बनाने में तो महारत थी
अभी सोचता हूँ कि ये सब क्यों किया
इस चक्कर में खुद को धोका दे चुका हूँ कई दफ़ा

No comments:

Post a Comment