मृग तृष्णा

जब भी तुझे
ढूंढे निगाहें
तेरे करीब
खुद को ही पाए

तेरे भरम में
चलता चलूँ में
बदलता फिरूँ में
अक्सर अपनी राहें

जैसे कस्तूरी
हिरण के अंदर ही
नाचे और दौड़े
अंदर ना टटोले

तेरा ही जोगी
ये दिल बन चुका है
समझता नहीं ये
लख समझाए

तेरे साँसों की गर्मी
तेरे छूने की नरमी
ऐसा लगे तू मेरे
पास भरे आहें

तेरा वो आलिंगन
बाँहों की जकड़न
वो माथे पे चुम्बन
तुझे कैसे भुलाये

तेरा ही चेहरा
दिल में बसा है
फैला के खड़ा हूँ
मैं अपनी बाहें

उम्मीद मेरी
ना होगी कभी कम
तू आएगी जल्दी
ये दिल दोहराये

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