तो बुला रहा है हमारा घर


तंग गलियों में बड़ा सा लकड़े का प्रोल
शहरी गर अंदर घुसा पहली दफ़ा
तो उसे महल से कम लगेगा हमारा घर

अब तक की आधी ज़िन्दगी उधर गुजरी है
यूँ कहें तो वहीं बिताया हुआ पल ही जीवन था
गर वो पल जीने हैं फिर से
तो बुला रहा है हमारा घर

प्रोल में घुसते ही दाएं तरफ बड़ा सा कमरा था
जो तीन तरफ से बरामदों से घिरा था
गर पीनी है उन बरामदों में बैठ के चाय
तो बुला रहा है हमारा घर

और प्रोल के बिल्कुल सटके जो बरामदा था
जिसमे से बहुत बड़ा सांगरी का पेड़ निकल के जो
आगे वाले कमरे को धुप से बचाता था
गर करनी है आपको आस की पूजा उस पेड़ पे
तो बुला रहा है हमारा घर

गर्मियों की छुट्टियों में इस कमरे में डेरा रहता था
घर वाले तो क्या पुरे मोहल्ले के लड़कों का जमावड़ा रहता था
शतरंज ताश केरम लुड्डो या लुक्का छिप्पी
बस नाम लेने तक की देर रहती थी
अब वो कमरा हमें देख के  हँसता है
गर जमानी है बाजी फिर से
तो बुला रहा है हमारा घर

छता पुचके या मलाईबर्फ
सब के ठेले घर की प्रोल में आते थे
और इन्ही बरामदों में बैठ के
सब का आनंद उठाते थे
होली खेळ के कढ़ावे के नाश्ते का मजा भी इधर ही लेते थे
गर लेने हो वैसे मजे फिर से
तो बुला रहा है हमारा घर

सुबह होते ही अख़बार प्रोल में ही मिलता था
और कभी कभी तो मोहल्ले वाले
उस अख़बार से भी पेहले बरामदे में बैठे नजर जाते थे
अख़बार के साथ उनको चाय की मनुहार भी होती थी
घर का अख़बार होते हुवे भी
उनके पूरा पढ़ लेने का इंतज़ार करते थे
गर लेनी हो खबरें चाय संग उसी अख़बार से
तो बुला रहा है हमारा घर

प्रोल से आगे ही बरामदों के बाद
एक बड़ा सा आँगन भी हुआ करता था
जिसे मारवाड़ी में चट्टा भी बोला जाता है
जिसमे शहरों के दशों घर भी हो जाते होंगे
उतना हिस्सा घर का भी बच्चों के खेलने को ही हुआ करता था
सूर्य नारायण के जाने के साथ ही वहाँ
क्रिकेट जमाया जाता था और आसमां के लाल होने तक
गलियों की नालियों से बॉल निकाली जाती थी
गर खेलना हो फिर से वही खेल
तो बुला रहा है हमारा घर

हमें याद नहीं की घर का कोई ऐसा हिस्सा भी होगा
जहाँ हम खेले हो
मटके खिड़कियां कांच और लट्टू हमने फोड़े हो
खेलते खेलते कब बड़े शहरों में गए
और सुनहरा सा बचपन हम भुला गए
मन तो करता है सब छोड़ छाड़ दे गर वही बचपन फिर से जाये
मगर कुदरत ऐसा होने नहीं देगी
पर अपने बच्चों को बोल सकते है की
गर जीना है वैसा बचपन
तो बुला रहा है हमारा घर

अब जैसा माहौल नहीं था पहले
घर के सारे बड़े छोटे अवसर इधर ही हुआ करते थे
चट्टे के एक तरफ हलवाई अपने तंबू लगवा लेता था
और पुरे घर में खाना हो जाया करता था
गर करना हो वैसा ही फंक्शन
तो बुला रहा है हमारा घर

पतंगों के सीजन में सारी छतें भरी रहती थी
कभी कभी तो पेंच आपस में भी लड़ जाया करते थे
आजकल तो फ़ोन पे पूछना पड़ता है
क्या भाई पतंगें उड़ाने छत पे कोई आने भी वाला है क्या
गर लड़ाने हो वही पेंच
तो बुला रहा है हमारा घर

दिवाली में सजावट कम ही होती थी
हरेक घर के सदस्य के मन ही सजे रहते थे
बिजली के दिये तो अब आये है
मोमबत्ती लेके ही सारे दीपक बार बार जलाते थे
पूजन तो जैसे पटाखे छोड़ने से पहले की कोई रीती हो
आरती कर प्रसाद लेके सीधे कपड़े बदल लेते थे
अब सबको अपने अपने पटाखों का थैला मिलता था
और मिर्च की लड़ भी खोल के छोड़ा करते थे
चकरी अनार तार और सूतली का कचरा
पुरे चट्टे पे बिखरा मिलता था
गर करनी है पटाखों से रात रोशन फिर से
तो बुला रहा है हमारा घर...

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