जवानी अपने बचपने में थी

जवानी अपने बचपने में थी
और चलने की कोशिश मे थी
बार बार गिर के
खड़े होना सिख रही थी

कोई भी रंग उसे भा रहा था
मानो इंद्रधनुष आसमाँ में हो
काले सफ़ेद में भेद किये बिना
सारा समय कुछ न कुछ खेलने में थी

जवानी का बचपन बीतने आया था
गठरिया जिम्मेदारियों की लद चुकी थी
समझ में आये कि क्या चल रहा है
तब तक रंगत बदल चुकी थी

तुतलाती भाषा जवानी की मानो
परिपक्व आवाज़ बन चुकी थी
वही चेहरे नई फितरतें रोज़ सामने आती
सबको भाँपने की जैसे आदत बन चुकी थी

जिस रंग के खेल खेले थे
तस्वीर उसी से बन रही थी
जिसको जो रंग पसंद थे
परख उसी से हो रही थी

रिश्ते फ़रिश्ते ऐसे ही काम नहीं आते
कीमत सबको चुकानी पड़ रही थी
जवानी अब जवान हो चुकी थी
सुई हो घड़ी की जैसे दौड़ रही थी

प्रकाश है तो परछाई भी होगी
ऊपर से कम पर किनारे से ज्यादा होगी
जवानी का भी किनारा आने को था
और एक दिन रात हो चुकी थी

एहसास मानो खो चुके थे
जैसे पतों में से रंग
आँधियों संग पेड़ से गिरने ही वाले थे
और तभी पानी की आस में पत्ता गिर चुका था

पत्ता गिरने के बाद हवा का साथी बन चुका था
पानी से भीगने पे माटी बन चुका था
मिटटी बनना तय था उसका
उसके गिरने से पहले की धुप
या गिरने के बाद की बारिश
इन पे गौर मत कर राजा
ज़िन्दगी भी ऐसे ही होगी गौर इसपे कर
फिर ऐसा मत कहना समय निकल चुका था

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