कमाई

प्यार तुम्हे तब ही मिलेगा
जेब तेरा जब भरा रहेगा
रंग बदलने का ये राज
गर ना होवे कमाई आज

शिक्षा भी हो गयी मोहताज़
संबंध भी कहाँ होते आज
ऊपर से कोसे ये समाज
गर ना होवे कमाई आज

खिल्ली उड़ाए सारा ज़माना
जब गर्भ में आये नन्ही सी जान
पालोगे कैसे बतलाओ साहब
गर ना होवे कमाई आज

श्रमिक से पूछो तो तुम जानो
प्यार क्या होता है पहचानो
उगल देंगे वो सारे राज
गर ना होवे कमाई आज

एहसास कहीं भी रह नहीं पाते
दो वक़्त गुजारा भी कर नहीं पाते
खाना पड़े रोटी और प्याज़
गर ना होवे कमाई आज

रोज़ी रोटी शानों शौकत
और तो और दोस्त मेहमान
सबका पड़ जाए जैसे अकाल
गर ना होवे कमाई आज

बहुत से ऐसे किस्से भी है
सातों वचन जहाँ टूटे है
भाई ले भाई से ब्याज
गर ना होवे कमाई आज

रंज पे तंज कसे घर वाले
गरज का कोई मान न माने
नहीं बन पाए कोई काज़
गर ना होवे कमाई आज

प्यार व्यार मोहब्बत ज़ज़्बात
ज्ञान ध्यान रीति रिवाज़
धीमी पड़ी सारी आवाज़
गर ना होवे कमाई आज

प्यार में मोटी मोटी बातें
फंस जाते है करने वाले
बढ़िया इलाज ना रेल जहाज
गर ना होवे कमाई आज

इक़्तेफ़ाक़ तो नहीं था

मेरे रोम रोम में बस जाना तेरा
इक़्तेफ़ाक़ तो नहीं था
ज़माने से परे तुझ में किनारा मेरा
इक़्तेफ़ाक़ तो नहीं था

जैसे दरिया मेरे इर्द गिर्द ही था
फिर भी प्यासा सो जाना मेरा
इक़्तेफ़ाक़ तो नहीं था

मेरा वजूद तो वैसे आज भी कुछ नहीं
फिर भी तुझ में वजूद तलाशना मेरा
इक़्तेफ़ाक़ तो नहीं था

साकी सा ही था तेरा मुझ संग होना
दुनिया से परे संग पाके तेरा
बेहोश हो जाना मेरा
इक़्तेफ़ाक़ तो नहीं था

पंछी का काम है उड़ना

पंछी का काम है उड़ना और दाना लाना
वो एक काम तो उसे करना ही पड़ेगा
गर जीना है जीवन शान से
तो घरोंदे से बाहर जाना ही पड़ेगा

घरोंदे में आखिर कब तक बैठेगा पंछी
कब तक बाहर के तूफान देखेगा
कभी तो उसे भी सामना करना पड़ेगा
हवा के थपेड़ों के विपरीत उसे भी उड़ना पड़ेगा

उसकी मर्जी भी है
कि वो उड़े या ना उड़े
जाए बाहर घरोंदों से या ना जाए
लेकिन कब तक अपनों के सहारे जीवन बिताएगा

गर ना भरी उड़ान उसने तो
वो उस घरोंदे को ही खा जायेगा
अपनों के भरोसे को वो
तार तार कर जायेगा

दाने बिना जीवन की कल्पना भी श्राप है
बिना उड़ान के दानों की सोच भी पाप है
अपनों का सहारा सहारे बिना कैसे मिलेगा
ये साधारण सोच ही पंछी को उड़ाएगा

मेरी ज़िम्मेदारी से वाकिफ़ हूँ

ज़माने भर की आवाज़ सुनता रहूँगा
ताउम्र कर्म करता रहूँगा
मेरी ज़िम्मेदारी से वाकिफ़ हूँ
मैं दिन रात मेहनत करता रहूँगा

कौन कैसे पेश आते है मुझसे
इनका हिसाब कैसे रखूँ
मेरा काम नहीं ये जनाब
कि किसने क्या कहा उसका जवाब देता रहुँगा
मेरी ज़िम्मेदारी...

मेरे जवाब से भी गर वह शान्त होये
तो समझ भी आये
बिन मतलब की गुफ्तगू में
अपना भेजा क्यों दुखाउंगा
मेरी ज़िम्मेदारी...

हिसाब तो इन सब का इधर ही होगा
में क्यूँ इसमें भागीदार बन जाऊँ
राहत है शांति से जीने में
अशांति मन में क्यूँ फैलाऊंगा
मेरी ज़िम्मेदारी...

अच्छा बुरा फायदा नुकसान
किसी न किसी को तो होयेगा ही
मैं मेरे हिस्से की कमाई से खुश हूँ
यही कोशिश करता रहूँगा
मेरी ज़िम्मेदारी...

गीता का सार भी तो यही है
कर्मों का जाल बुनता चलूँ
रास्ते तो निश्चित ही कठिन होंगें
अपने को मुकम्मल बनाता चलूँगा
मेरी ज़िम्मेदारी...

गर खुश हो तो, खुश रहो

हमसे रुख़सत होके भी गर खुश हो तो, खुश रहो
हमें दरकिनार करके भी गर खुश हो तो, खुश रहो
ख़ामोशी तो खाये जा रही है तुम्हारी मुझे
सिर्फ मुझसे ही खामोश होने में
गर खुश हो तो, खुश रहो

हालात कैसे भी रहे हों मेरे
मैं हर हाल में तेरे साथ था
मुझे बेवजह छोड़ के जाने में
गर खुश हो तो, खुश रहो

शहर की चकाचौंध नहीं लगी मुझे
आज भी तेरी हरएक अदा याद है
पता नहीं क्यों मुझे यूँ भुलाने में
गर खुश हो तो, खुश रहो

मैं दोष किसको दूँ तेरी इन खताओं का
मेरे आसपास तो मैं भी नहीं रहता
मुझसे मेरी ज़िन्दगी यूँ छीनके
गर खुश हो तो, खुश रहो

शायरियाँ

क्यों नहीं हँस पाते है लोग,
चाहते नही हैं या है परिस्थिति का बोझ
कोशिश जारी रख ए मेरे दोस्त जंग ए मैदान है ये जिंदगी
मुस्कान लब पे रख और चला चल हर रोज

मिलकियत तुम्हारी किस पे क्या होगी
खाली हाथ ही तो आये थे जैसे सब आये थे
दावा तो ऐसे करते हो हर किसी पे जैसे
तुम्हारे बिन ये दुनिया कदम कैसे बढ़ाएगी

मुझे पता है मेरा एक भी कलमा
तेरे तक नहीं पहुँचा होगा तूने देखा तो जरूर पर पढ़ा न होगा दरकिनारी की हद तो देखो राजा सैंकड़ो सलाम भेजे होंगे मजाल है सामने से एक सलाम भी आया होगा

खुला फीता

दफ्तर के लिए घर से निकला ही था
और जूतों पे फीता कसना भूल गया
मैं तो सिर्फ इतना ही भुला था इस शहर में
खैर, सड़क के किनारे अचानक से देखा तो लगा
जैसे दोनों फीते आपस में इशारों में बातें कर रहे हो
या जैसे भोला बालक हाथ हिलाते चला जा रहा कहीं
बेफिक्र में जैसे अपनी ही मस्ती में कहीं
कभी दाएं तो कभी बाएं देखता हुआ
जूतों से बाहर जाने की कोशिश तो न थी कहीं फितों की
गर ऐसा था तो कुछ गजब ही होने वाला था
जूतों को धारण किये मैं गिरने वाला था
इसका दोष गर फीतों को दे तो बेवकूफी होगी
फ़ीते कभी भी खुद से नहीं बंधने वाले
खुला छोड़ना अच्छी बात है बांधना नहीं
पर खुला छोड़ने पे गर कोई गिर जाए तो
नसीहत यही सही होगी कि कसना भी जरुरी है
मेरे पास दूसरा पहलु भी था इसका
की गर में इनको न कसता
तो यह मेरी ज़िम्मेदारी है
की संभल के चलूँ

जवानी अपने बचपने में थी

जवानी अपने बचपने में थी
और चलने की कोशिश मे थी
बार बार गिर के
खड़े होना सिख रही थी

कोई भी रंग उसे भा रहा था
मानो इंद्रधनुष आसमाँ में हो
काले सफ़ेद में भेद किये बिना
सारा समय कुछ न कुछ खेलने में थी

जवानी का बचपन बीतने आया था
गठरिया जिम्मेदारियों की लद चुकी थी
समझ में आये कि क्या चल रहा है
तब तक रंगत बदल चुकी थी

तुतलाती भाषा जवानी की मानो
परिपक्व आवाज़ बन चुकी थी
वही चेहरे नई फितरतें रोज़ सामने आती
सबको भाँपने की जैसे आदत बन चुकी थी

जिस रंग के खेल खेले थे
तस्वीर उसी से बन रही थी
जिसको जो रंग पसंद थे
परख उसी से हो रही थी

रिश्ते फ़रिश्ते ऐसे ही काम नहीं आते
कीमत सबको चुकानी पड़ रही थी
जवानी अब जवान हो चुकी थी
सुई हो घड़ी की जैसे दौड़ रही थी

प्रकाश है तो परछाई भी होगी
ऊपर से कम पर किनारे से ज्यादा होगी
जवानी का भी किनारा आने को था
और एक दिन रात हो चुकी थी

एहसास मानो खो चुके थे
जैसे पतों में से रंग
आँधियों संग पेड़ से गिरने ही वाले थे
और तभी पानी की आस में पत्ता गिर चुका था

पत्ता गिरने के बाद हवा का साथी बन चुका था
पानी से भीगने पे माटी बन चुका था
मिटटी बनना तय था उसका
उसके गिरने से पहले की धुप
या गिरने के बाद की बारिश
इन पे गौर मत कर राजा
ज़िन्दगी भी ऐसे ही होगी गौर इसपे कर
फिर ऐसा मत कहना समय निकल चुका था

तैयारी कर रहे है

उम्र कट जाएंगी बिना ज़िन्दगी के
पता नहीं लोग किस ज़माने में जीने की तैयारी कर रहे है

जवानी का दरिया बह जाएगा जनाब यह समय की ढलान है
पता नहीं लोग कौनसे समंदर पार करने की तैयारी कर रहे है

रंगत बदलती रहती है हर एक मौसम में ज़मीन की
जीवन है तो सुख दुःख रहेंगे
पता नहीं लोग कौनसे परम सुख पाने की तैयारी कर रहे है

शरीर है तो बीमारी भी होगी
ये सब तो चलते रहेंगे
पता नहीं लोग कौनसी संजीवनी लाने की तैयारी कर रहे है

नगमा तो कंठों से ही निकलेगा
बिन एहसास क्या वे मजा दे पाएंगे, फिर भी
पता नहीं लोग कौनसा सुर लगाने की तैयारी कर रहे है

यकीं नहीं आता तो

तकलुफ तुम्ही से रखता हूँ
इसलिए दिन रात परेशान करता हूँ
यकीं नहीं आता तो मेरे पड़ोस वाले चाचा से पूछ लेना
कि मेरी उनसे आखरी बात कब हुयी थी

खामोशियाँ तन्हाईयाँ ज़िन्दगी में गर है
मतलब कोई तो है जिसके होने की उपस्थिति नहीं रही
यकीं नहीं आता है तो मेरे बर्ताव से पूछ लेना
कि बिना चिड़चिड़ेपन के आखरी बात कब हुयी थी

सवेरे से सांझ तक आँखें किसको तलाशती है
यह सवाल आखिरी दम तक रहेगा
यकीं नहीं आता है तो मेरी रातों से पूछ लेना
कि बेफ़िक्री की नींद आखिरी बार कब ली थी

प्यार करना और प्यार पाना जैसे आसमाँ और ज़मीन है
जुड़े हुए दिखते जरूर है दूर से किन्तु है नहीं
यकीं नहीं आता है तो मेरी आदतों से पूछ लेना
कि किसी ने उसकी तारीफ आखरी बार कब की थी

मैं क्षुब्ध था

मैं क्षुब्ध था, आहत भी,
तेरी कसम ना राहत थी,
हंसी के लिए तेरे मैं थम गया
ऐसा नहीं मुझमें जुनूँ कम था।

यादों को तेरी सारी मिटाके
सोचा था तुझको भुला पाएंगे
कम्बख्त दिल माना नहीं
और कर ना पाया मुझसे वफ़ा
मैं क्षुब्ध था...

तेरी हंसी तेरी वो मस्तियाँ
ज़िन्दगी वही थी मेरे लिए
अब तो मैं साँसें ले रहा हूँ
जीना जैसे मैं भूला दिया
मैं क्षुब्ध था...

जिम्मेदारियों से मैं बंधा था
इसके लिए अब तक जी रहा हूँ
गर मैं अकेला होता तो
तुम भी कब की हो चुकी होती तनहा
मैं क्षुब्ध था....

बात ही कुछ और थी


ज़िन्दगी बहुत ही हसीं थी जनाब
पैसे देके भी वो मजे नहीं है शहर में
बिन पैसे के किये मजों की
बात ही कुछ और थी

घर पे छोटी साइकल थी
अधे को किराये पे बीकानेर की घाटियों में घुमाने की
बात ही कुछ और थी

महँगी चॉकलेट्स भाई नेपाल से भेजा करता था
पर स्कूल और क्लास के बाहर
एक रुपये की चार फाँकों की
बात ही कुछ और थी

लॉन्ग वेकेशन में हॉलिडे बुक नहीं होते थे जनाब
बचपन के दोस्तों संग दिन भर खेलने की
बात ही कुछ और थी

जन्मदिन पर केक तो बहुत बाद में आने लगे थे जनाब
प्रसाद के बाद छोटू मोटू के रसगुल्लों और समोसों की
बात ही कुछ और थी

होटलों का खाना तो शहर आके ही देखा था जनाब
साल में कभी कभार आनंद के डोसों की
बात ही कुछ और थी

फल रसाल से छबड़ी भरी रहती है जनाब
उस वक़्त तो भुआ की बिहार से लायी हुयी लिच्ची की
बात ही कुछ और थी

एक घर में कम से कम दस गेंद मिल जायेगी अभी
पर दस जन मिलके एक गेंद लाके खेलने की
बात ही कुछ और थी

अभी होली पे बन्दे रिसोर्ट की बुकिंग करवाते है जनाब
सांग बन के इकट्ठे किये पैसो से गोठ की
बात ही कुछ और थी

अभी के बच्चों जैसे नाटक कहाँ थे खाने में जनाब
वो घर के खाने की
बात ही कुछ और थी

डोनट पिज़्ज़ा या गार्लिक ब्रेड इतने तो नाम भी पता थे
सर्दी में फेंणा रोटी और गर्मी में राबड़ी की
बात ही कुछ और थी

कोई भी फंक्शन अब कैटरिंग वाले को दे देते है
खुद से खातिर कर के अंत में खाने की
बात ही कुछ और थी

एप से बुक की हुयी गाड़ी सीधे घर के नीचे जाती है
घर के आगे ऑटो के मिलने की
बात ही कुछ और थी

बचा हुआ खाना इधर डस्तबिन में जाता है जनाब
गाय कुत्ते को खिलाने के सुकून में
बात ही कुछ और थी

अलार्म से बंद कमरों में एसी के नीचे आँख खुलती है
चिड़ियों के चहकने से उठने की
बात ही कुछ और थी

गीजर से नल में सीधा गर्म पानी आता है जनाब
तपेली में चूल्हे पे किये गर्म पानी की
बात ही कुछ और थी

तो बुला रहा है हमारा घर


तंग गलियों में बड़ा सा लकड़े का प्रोल
शहरी गर अंदर घुसा पहली दफ़ा
तो उसे महल से कम लगेगा हमारा घर

अब तक की आधी ज़िन्दगी उधर गुजरी है
यूँ कहें तो वहीं बिताया हुआ पल ही जीवन था
गर वो पल जीने हैं फिर से
तो बुला रहा है हमारा घर

प्रोल में घुसते ही दाएं तरफ बड़ा सा कमरा था
जो तीन तरफ से बरामदों से घिरा था
गर पीनी है उन बरामदों में बैठ के चाय
तो बुला रहा है हमारा घर

और प्रोल के बिल्कुल सटके जो बरामदा था
जिसमे से बहुत बड़ा सांगरी का पेड़ निकल के जो
आगे वाले कमरे को धुप से बचाता था
गर करनी है आपको आस की पूजा उस पेड़ पे
तो बुला रहा है हमारा घर

गर्मियों की छुट्टियों में इस कमरे में डेरा रहता था
घर वाले तो क्या पुरे मोहल्ले के लड़कों का जमावड़ा रहता था
शतरंज ताश केरम लुड्डो या लुक्का छिप्पी
बस नाम लेने तक की देर रहती थी
अब वो कमरा हमें देख के  हँसता है
गर जमानी है बाजी फिर से
तो बुला रहा है हमारा घर

छता पुचके या मलाईबर्फ
सब के ठेले घर की प्रोल में आते थे
और इन्ही बरामदों में बैठ के
सब का आनंद उठाते थे
होली खेळ के कढ़ावे के नाश्ते का मजा भी इधर ही लेते थे
गर लेने हो वैसे मजे फिर से
तो बुला रहा है हमारा घर

सुबह होते ही अख़बार प्रोल में ही मिलता था
और कभी कभी तो मोहल्ले वाले
उस अख़बार से भी पेहले बरामदे में बैठे नजर जाते थे
अख़बार के साथ उनको चाय की मनुहार भी होती थी
घर का अख़बार होते हुवे भी
उनके पूरा पढ़ लेने का इंतज़ार करते थे
गर लेनी हो खबरें चाय संग उसी अख़बार से
तो बुला रहा है हमारा घर

प्रोल से आगे ही बरामदों के बाद
एक बड़ा सा आँगन भी हुआ करता था
जिसे मारवाड़ी में चट्टा भी बोला जाता है
जिसमे शहरों के दशों घर भी हो जाते होंगे
उतना हिस्सा घर का भी बच्चों के खेलने को ही हुआ करता था
सूर्य नारायण के जाने के साथ ही वहाँ
क्रिकेट जमाया जाता था और आसमां के लाल होने तक
गलियों की नालियों से बॉल निकाली जाती थी
गर खेलना हो फिर से वही खेल
तो बुला रहा है हमारा घर

हमें याद नहीं की घर का कोई ऐसा हिस्सा भी होगा
जहाँ हम खेले हो
मटके खिड़कियां कांच और लट्टू हमने फोड़े हो
खेलते खेलते कब बड़े शहरों में गए
और सुनहरा सा बचपन हम भुला गए
मन तो करता है सब छोड़ छाड़ दे गर वही बचपन फिर से जाये
मगर कुदरत ऐसा होने नहीं देगी
पर अपने बच्चों को बोल सकते है की
गर जीना है वैसा बचपन
तो बुला रहा है हमारा घर

अब जैसा माहौल नहीं था पहले
घर के सारे बड़े छोटे अवसर इधर ही हुआ करते थे
चट्टे के एक तरफ हलवाई अपने तंबू लगवा लेता था
और पुरे घर में खाना हो जाया करता था
गर करना हो वैसा ही फंक्शन
तो बुला रहा है हमारा घर

पतंगों के सीजन में सारी छतें भरी रहती थी
कभी कभी तो पेंच आपस में भी लड़ जाया करते थे
आजकल तो फ़ोन पे पूछना पड़ता है
क्या भाई पतंगें उड़ाने छत पे कोई आने भी वाला है क्या
गर लड़ाने हो वही पेंच
तो बुला रहा है हमारा घर

दिवाली में सजावट कम ही होती थी
हरेक घर के सदस्य के मन ही सजे रहते थे
बिजली के दिये तो अब आये है
मोमबत्ती लेके ही सारे दीपक बार बार जलाते थे
पूजन तो जैसे पटाखे छोड़ने से पहले की कोई रीती हो
आरती कर प्रसाद लेके सीधे कपड़े बदल लेते थे
अब सबको अपने अपने पटाखों का थैला मिलता था
और मिर्च की लड़ भी खोल के छोड़ा करते थे
चकरी अनार तार और सूतली का कचरा
पुरे चट्टे पे बिखरा मिलता था
गर करनी है पटाखों से रात रोशन फिर से
तो बुला रहा है हमारा घर...