आज का युवा

जवां धड़कनों का बढ़ता हुआ कारवां ये
जाने थमेगा कहाँ किसी छाँव में ये

सुलगता नही है धधकता है शोला इनकी आँखों में
रोशन है इन्ही की संगत से सारा जहां ये

गुस्सा नहीं है आदत बुरी इनकी जानो
बहुत से सवालों का गुम्बद लिये घूमते हैं

कहाँ से हटेगा तिमिर इनके मन से कौन जाने
काश, अभी से किरण कोई इनको भी कहीं दिख पाए

मेहनत बिना कैसे राज पाएं
बस कैसे भी शिखर तक पहुँच पाएं

मैं हैरान हूँ इनके चुने रास्तों से
क्यूँ ना घर से ही फिर से नई शुरुआत की जाये

सवाल

ये जो शरारत
हुई जाना मुझसे
क्या इसका सिला
होगी लम्बी जुदाई

ये जो मोहब्बत
हुई जाना तुझसे
क्या लिखी भाग्य में
बस तुझसे तन्हाई

नहीं मौत मुझको
अभी आने वाली
क्यों साँसें हुई
अब मुझसे ही पराई

सोचा ही होगा
सबके बारे में तूने
क्यूँ लिया फैसला
बिन जाने मेरी सच्चाई

ऐसा नहीं कि
मुझे तू भूल पाए
बस इतना बता
क्यूँ दी मुझको रिहाई

आशीर्वाद

ले भर तेरी खाली झोली
जो चाहे सो पाये
पोंछ तेरे अब सारे आँसू
वक्त है तू मुस्काये

धन धान्य और सुख विद्या का
अब से हर जन पाये
ले भर तेरी खाली झोली....

साया बड़ों का उठने न पाये
वो मार्ग सदा ही दिखलाये
ले भर तेरी खाली झोली....

निःसंतान रहे ना तेरा दामन
कुदरत कोई पुष्प खिलाये
ले भर तेरी खाली झोली....

रोग अशांति न घेरे तुमको
दो मजहब ना टकराये
ले भर तेरी खाली झोली....

छोटे करें आदर सब बड़ों का
वृद्व भी हँसते ही जाए
ले भर तेरी खाली झोली....

माता के दरबार लगे हैं
एक बार तो दर्शन पाये
ले भर तेरी खाली झोली....

अंजान की अच्छी सोच

वो भाग रहा, मैं था बस में
खिड़कियाँ बस की सारी बंद थी

बारिश बहुत जोरों की थी
उसकी भी छतरी, न सर पर थी

बस में न जगह चींटी की थी
तो चालक ने बस रोकी भी ना थी

क्यूँ मेरा ध्यान गया उस पर
क्यूँ सोच पड़ा मैं भी क्षण भर

बोलूँ चालक को थोड़ा ठहर भी जा
लेले उसको, मत छोड़ के जा

कोई तो उसका भी इंतज़ार करे
शायद माँ ही हो जो चिंतित विचार करे

मैंने सच्चे मन से प्रभु को याद किया
वैसे ही सिग्नल लाल हुआ

अब दो मिनट बस रुक जायेगी
उसको भी ये बस मिल जायेगी

उसके चेहरे पे मुस्कान खिली
जब उसको भी बस में जगह मिली

भागे भागे वो पूरा भीग गया
अदा शुक्रिया प्रभु का फिर भी उसने था किया

मेरे मन में भी शुकून आया
मैंने भी प्रभु को प्रणाम किया

किसी अंजान का था सोचा अच्छा
और मेरा भी मन प्रसन्न हुआ

पहाड़ों के पत्थर

ये बारिश के पानी का आलम तो देखो
पहाड़ों के पत्थर भी डरने लगे है
कहीं संग बहाके न ले जाये मुझको
या घिस के कहीं कोई मंदिर में न रख दे

माना कि मुझमें न कोई उपज है
पर आज़ादी की तो मुझको भी समझ है
गर मैं स्थापित हो गया मंदिर में
तो बाहर आना मुमकिन होगा कैसे

मंदिर के बाहर जो बैठे है विचलित
अपनी जान से होते हैं वंचित
वो भी पहाड़ों पे आते है रोते है
प्रतिध्वनि उनकी अब कौन सुनेगा

गर मुझको मंदिर में कोई रख देगा
सोचो कोई भी मौसम मुझे न मिलेगा
न सुन सकूँगा मैं पत्तों की बातें
और ना ही वो बारिश का नज़ारा भी होगा

रात को रहना पड़ेगा तालों में
जकड़ा रहा ना पहले ऐसा कभी मैं
गर कोई भक्त मुझे ले भी गया बाहर
समझो भौर होने से पहले हंगामा तैयार मिलेगा

जो बच भी गया मैं मंदिर जाने से
नदियों में ठोकर खाता रहूँगा
या कोई रस्ते का रोड़ा बनूँगा
और किसी रुन्दन का कारण भी बनूँगा

मुझको ख़ुशी है कि मेरी वजह से
बहुतों ने सूरज की पहली किरणें है देखी
पर मुझे गम है मेरा यूँ बिल्कुल जड़ सा होना
मैं किसी डूबते सूरज को कभी ना रोक पाया

हे नाथ तेरी, जय जय जय

तूझ से प्रारम्भ
तुझ से प्रलय
हे नाथ तेरी
जय जय जय

तू ही गगन
तू ही सतह
हे नाथ तेरी
जय जय जय

और क्या दूँ
तेरा परिचय
हे नाथ तेरी
जय जय जय

देखूं तुझे तो
हो जांउँ विस्मय
हे नाथ तेरी
जय जय जय

तू ही सागर
तू हिमालय
हे नाथ तेरी
जय जय जय

तू काटे कलेश
और भागे भय
हे नाथ तेरी
जय जय जय

जिसका न कोई
तू उसकी सराय
हे नाथ तेरी
जय जय जय

तू ही सरल
अनसुलझी प्रमेय
हे नाथ तेरी
जय जय जय

भटके जो राही
तो पाये गंतव्य
हे नाथ तेरी
जय जय जय

कर पाये निर्णय
ना रहे संशय
हे नाथ तेरी
जय जय जय

कहाँ भूल पाया

वो सुनसान सी
जो इक रात थी
मैं उस को अभी तक
कहाँ भूल पाया

मेरा यूँ बुलाना
तेरा मान जाना
मैं उन पलों को
कहाँ भूल पाया

वो रात आधी और चाँद पूरा
मेरे पास भी था चमकता सितारा
मैं उस सितारे को
कहाँ भूल पाया

वो शरमाता चेहरा
चुप रहने का इशारा
मैं उस इशारे को
कहाँ भूल पाया

मिलते ही तुमसे
तुझे बाँहों में भरना
मैं उन इरादों को
कहाँ भूल पाया

और ठुडी पकड़ के
माथा चुम जाना
मैं वो सारी हरकत
कहाँ भूल पाया

इतनी सी बात बता

तू बस इतनी सी बात बता
अब तक के सारे ख़्वाब बता
मुस्कान तेरी गायब क्यूँ है
वो छुपे सारे जज़्बात बता

तू क्यूँ नहीं झपकी ले पाता 
जैसा बचपन में सोता था
झपकी बेेफिक्री वाली और
वैसे सोने का अंदाज बता

इतने साधन होने पर भी
तेरा मन फिर क्यूँ डोल रहा
आखिर संतोष मिले जिससे
वो इक सूची तैयार बता

तू निर्णय कब कर पायेगा
कि राह तेरी अब क्या होगी
ज़िम्मेदारी बढ़ती जायेगी
क्या है तुझको इसका बोध बता

तेरे अपने तुझसे चाहे
कि तू अब उनकी पार लगायेगा
लेकिन कब तक तू देखेगा उनको
तेरे धोते सारे पाप बता

"राजा", कभी "मना" तूने न सुना
क्या सबको "हाँ" कर पायेगा
धैर्य, जज़्बा और ताकत तुझमें
क्या है मौजूद बस आज बता

हक़ीक़त

महकमें क्यूँ सुलगने लगे
जब कोई अपने पनपने लगे
क्या उनमें इतने शोले थे जो
अब जोरों से धधकने लगे

दुरी ऐसे कब आ गई जो
मिलने को भी तरसने लगे
बहुत समझ वाले लगे थे जो
जाने अब क्यूँ बहकने लगे

मुझसे सारे हँस के मिलते थे
तो होंठ मेरे भी हंसने लगे
नहीं मालूम था हँसते चेहरे भी
अंदर से क्रूर निकलने लगे

हँस के धोखा देना उनको
न जाने कैसे आम लगे
मेरा अब उनसे उबरने की
कोशिश हर दिन और शाम लगे

तेरी पीढ़ी तुझसे ही सीखेगी
क्यूँ इतना तुम ना सोच सके
चाह फूलों की रखते हो फिर
क्यूँ काँटे बो के बतियाने लगे

जाना

जाना ओ मेरी जाना
तू अब है कहाँ
जाना तेरा जाना
लागे कोई यातना
जाना ओ मेरी जाना...

आँगन में मेरी जाना
नैना ढूंढे निशां
बिन तेरे सूना जहाँ है
अकेला सा लागे मकां
जाना ओ मेरी जाना...

राहें अपनी जगह है
मुकम्मल न कोई मक़ाम
तुम बिन ओ मेरी जाना
अब तो नहीं कुछ आसां
जाना ओ मेरी जाना...

तेरा साथ ही तो
था मेरा इक वरदान
जाना कौन जाने
कैसा हो अब अंजाम
जाना ओ मेरी जाना...

जाना तेरा न आना
धुंधला सा जैसे समां
मौसम यूँ तो बदलते
पर आये ना फिर वो फ़िज़ां
जाना ओ मेरी जाना...

जल के जल में जाऊँ

जल के जल में जाऊँ
फिर सागर में मिल जाऊँ
लहरों के साथ मैं खेलूँ
और हरदम मौज मनाऊँ

सारी परवाहें छोड़ूँ
मद मस्त सा बन के डोलूँ
जीतेजी जो ना पाया
तुझ में मिलके वो पाऊँ

शब्दों में मैं खो जाऊँ
बस तुझको लिखता जाऊँ
जो हम में बीती अब तक
इक कोशिश से गा पाऊँ

परतें दर परतें खोलूँ
वो राज सभी मैं बोलूँ
जो तू कल से नाखुश हो
मुझे डर है तुझे न खो दूँ

छुप के मैं सो जाऊँ
उस नींद से ना उठ पाऊँ
गर फिर से खोलूँ आँखें
माँ का हाथ ललाट पे पाऊँ

बिटिया

अचंभित उसके नैना, सूरत से भोली भाली
बाबा के संग जो खेली, आँचल में जिसको पाली

गिरती उठती और चलती, बाबा की पकड़े ऊँगली
मींचे वो दोनों अखियाँ, मुँह में डाले जब इमली

बाबा की बिटिया है वो, ममता ने जिसको ढाली
फली फूली नाजों से, बाबा की प्यारी लाली

सपने साकार हो उसके, बस फैलाये खुशहाली
घर कौनसा होगा उसका, जब छोड़े गली बाबुल की

जिस घर में भी जाये, वो कहलाये भाग्यशाली
रिश्ते आनंदित कर दे, खुशियों से भर जाये झोली

ससुराल में मुस्काये हर पल, न होये आँखें गीली
मायके की याद न आए, हो राखी होली या दिवाली

                        @sethipras

चलना

रुकता चलूँ
संभलता चलूँ
अपनी वाणी को
परखता चलूँ

आहट सुनूं
पीछे मुडूं
कोई बुलाये
तो मैं भी रुकूँ

पलके भरूँ
हँस के जीऊँ
औरों के सुख दुःख का
साझी बनू

जब भी कहूँ
कुछ सच्चा कहूँ
वरना मैं लब पे
चुप्पी धरूँ

थाली पे बैठूँ
झूठा न छोड़ूँ
दाने दाने को
पुरष्कृत करूँ

सबसे जुड़ूं
पाँव जमीं पे धरूँ
दिखावे की आँधी से
बचता चलूँ

खाली जब बैठूं
मैं चिंतन करूँ
मानवता मेरी
कैसे उत्कृष्ट करूँ

मेरा सावन

ऋतुएँ आए और जाए
कोई मौसम मुझको न भाए
सावन मेरा मेरे संग है
जो हर पल बरसता ही जाए

झोंका हवा का जो आए
आँसू की धारों को सुखाए
ये नादां हवा क्यूँ न जाने
लकीरें उससे मिट न पाए

ये निशानी तुझसे क्या छिपाएं
तू बोले तो सब कुछ बताएं
सावन की वो भीगी रातें
अब हर रात ही भीग जाए

तेरा चेहरा नज़र से ना जाए
हरदम वो मुझे बहकाए
मेरे मन का ये बचपन तो देखो
तेरे नैनों में ही डूब जाए

मेरा सावन जो भी देख पाए
वो भी उसमे ही भीग जाए
और पूछे अचंभित होकर के
क्या ऐसे कोई सावन मे नहाए

ज़िन्दगी जितना कहाँ चल पाउँगा

कहीं तो रुक ही जाऊँगा
ज़िन्दगी जितना कहाँ चल पाउँगा
पग पग संभालता हूँ वैसे तो मगर
ना जाने कौनसे कंकर से टकरा जाऊँगा
ज़िन्दगी जितना....

सबको चुकानी पड़ती है कीमतें
हर एक सफलता की
कीमत गर खुद ज़िन्दगी हो जाए
तो बुलंदियों का क्या कर पाउँगा
ज़िन्दगी जितना...

सफलता की आग में
रिश्तों के महल जले हैं
क्या उसी की राख पे
नये आशियानें फिर से बाँध पाउँगा
ज़िन्दगी जितना...

मन शान्त नहीं होता
जब भीतर में उद्वेग भरा हो
हर क्षण आवेश के आवेग से
क्या कभी मुक्त हो पाउँगा
ज़िन्दगी जितना...

कोल्हू के बैल सा चला जा रहा हूँ
आँखों पे पट्टी और पांवों में चक्कर
क्या कभी उसी तेल को अपने सर पे
बरामदे में बैठ के लगवा पाउँगा
ज़िन्दगी जितना...

कहने को तो, अपनों की गिनती बढ़ रही है
पर हकीकत में उतना अपनापन है कहाँ
झूठे दिखावे में धोखा किस को दे रहा हूँ
क्या कभी इतना सा विचार कर पाउँगा
ज़िन्दगी जितना...

मेरी भावना

महकता रहूँ फूलों की तरह
काँटों से ना घबराऊँ
चुनता चलूँ छोटी छोटी खुशियाँ
जीवन को गुलिस्ताँ बनाऊँ

सीखूं समझूँ छोटी छोटी बातें
खुद को बड़ा ना बनाऊँ
बचपन मेरा जाये कभी ना
हर हाल में मैं खिलखिलाऊँ

सपने जुड़े हो जमीं से मेरे सारे
नामुनासिब ख़याल न आये
मेहनत करूँ चींटी के तरह मैं
और सपनों को पूरा कर पाऊँ

बुरा न सोचूँ किसी के भी खातिर
भला गर मैं ना कर पाऊँ
लीन रहूँ अपने ही करम में
और सबका मैं हाथ बंटाउँ

कोशिश करूँ गर कुछ दे सकूँ मैं
जिम्मेदारी से जीवन बिताऊँ
गैरों की मुस्कान अच्छी लगे और
खुशियाँ सब में बाँट पाऊँ

आदर करूँ मैं सारे बड़ों का
छोटों में प्यार लुटा पाऊँ
ध्यान रखूँ बस एक बात मैं
किसी क्लेश का कारण न बन जाऊँ

अच्छे से जानू तो राय भी दे दूँ
वरना मैं चुप हो जाऊँ
बिना ज्ञान के यूँ ही किसी को
मैं कभी भी कहीं न उलझाऊँ

सारे धरम का आदर करूँ मैं
नफरत कभी न फैलाऊँ
खुशियाँ लगे मुझको सबकी प्यारी
सबके दुःख में मैं शरीक हो पाऊँ

नाजों से जिसने मुझको पाला
सेवा मैं उनकी कर पाऊँ
कर्जा है जो कभी न चुकने वाला
बस फ़र्ज़ मैं अपना निभा पाऊँ

रहमत रहे तेरी मुझपे हमेशा
पूरी आस्था से ध्यान लगाऊँ
आँखें हो नम और मस्तक झुका सा
जब भी तेरा दीदार पाऊँ

पत्ता

पत्ता हरा था
शाख से जुड़ा था
मौसम खुशनुमा था
तो पत्ते को क्या गम था
बारिशें नहला देती थी
हवा संग खेल लेता था
पेड़ से जुड़ा था
इसलिए अब भी हरा था

कभी कली तो कभी फूल
और कभी फलों संग हँसता था
बंदरवार रंगोली तो कभी
पूजा में सजता था

मौसम बदलने लगे
हवाओं के मिज़ाज भी
नर्म से गर्म होने लगी
पत्तों को सताने लगी
वही हवाएं जिन संग खेले थे
पत्ते अब सूख के
सब सुख भूले थे

उसको तो झड़ना ही था
पेड़ से दूर होना ही था
पर दुःख झड़ने से ज्यादा
झड़ने के कारण से था
पेड़ से टूट चूका था
पत्ता अब हरा न था

पत्ता अब जमीन पे सोया था
हवा संग वह ख़ूब रोया था
कभी राहगीर के पाँव से दबा तो
कभी आवारा पशु का निवाला था
अगर बच भी गया तो
अब वह मिट्टी सा भूरा था
और अंत में मिट्टी में मिला
उसका सारा चूरा था

दोष किसको दे पत्ता
क्यूँ गई शाख से सत्ता
हवा जिसके संग खेला
या मौसम जो था बदला
गलत होगा दोष किसी पे मढ़ना
वक़्त के साथ था सब को चलना

मौसम को फ़िक्र पेड़ की थी
जरुरत उसे नए पत्तों की थी
पुराने नहीं जाएंगे तो
सीमित जगह पे नए कैसे आएंगे
पत्ते को अपना अतीत याद करके
वर्तमान खुशनुमा करना है
और यह भाव मन में रख के
सबको बस यही कहना है कि

मिट्टी से उपजा हूँ
और उसमे ही मिल जाऊँगा
जब तक जिया हूँ
हँस के जी जाऊँगा
सूख के टूटने से अच्छा
किसी औषध में काम आऊँगा
किसी मरीज के लिए
सिलबट्टे पे घिसा जाऊँगा

तू ही बता

तुझ से नाराज़ रहूँ
या फिर नया आगाज़ करूँ
चलना मुझे नहीं आता
तू ही बता
तेरी यादों के समन्दर पे
डूब जाऊँ या तैरता रहूँ

रंगत बदलती रहती है
दिल की हर पल
मिज़ाज़ नहीं रहते एक से
कभी तू तो
कभी तेरा खयाल
जहन में रहता ही है
तू ही बता
तुझे याद करता रहूँ या
भूलने की नाकाम कोशिश करूँ

अनगिनत मोड़ है
इस ज़िन्दगी की राह में
हर दूसरा घुमाव
तेरी तरफ मुड़े
सोचने लगता हूँ
हर मोड़ पे
कि मंजिल कहीं
पीछे तो रह नहीं गई
तू ही बता
कि अब मैं चलता चलूँ या
इंतज़ार में तेरे कहीं
किसी मोड़ पे रुकूँ

यक़ीनन खुश ही रहेगी
बिना मेरे ये तेरी जिंदगी
क्योंकि मेरा कोई काम
तुम्हे दुःख दे
ऐसा हो ही नहीं सकता
भले मेरा जाना ही क्यों न हो
तू ही बता
कि तू खुश है ना,
यही विचारुं
या कुछ और सोच के
आँखें नम करूँ

बचपन के बारिश की यादें

माँ अब भी क्या मैं तुम्हे बारिश में
हमेशा याद आता हूँ क्या

वैसे ही कोई बेपरवाह अब भी मेरे जैसे
पनाल के नीचे धार का साथ देता है क्या

क्या अब भी कोई पकोड़े बनने का इंतज़ार
खाली थाली में धनिये की चटनी लिए करता है क्या

क्या अब भी कोई बौछारों से
अपने कपड़े भीगोता है क्या

क्या अब भी कोई भीगे कपड़ो को
उतारे बिना दिन भर तेज़ बारिश का
इंतज़ार करता है क्या

क्या अब भी कोई गीले पाँवों से
रसोई तक कुछ खाने को जाता है क्या

क्या अब भी कोई पागलों जैसे भीगे हुवे
जोर जोर से गाता है क्या

क्या अब भी कोई आँगन के नाले बंद करके
आँगन को तालाब बनाता है क्या

और तालाब बनाके उसमें
तैरने के करतब कोई दिखाता है क्या

क्या अब भी कोई बारिश के बाद
लाल मखमली कीड़े काँच के डिब्बे में भरता है क्या

क्या अब भी कोई बारिश होने के बाद
मिट्टी के महल बनाता है क्या

क्या अब भी कोई घर की दीवारों पे
गीली मिट्टी से कलाकृतियां बनाता है क्या

क्या अब भी कोई इंद्रधनुष को देखने के लिए
बारिश के बाद घंटो छत पे बैठा रहता है क्या

क्या अब भी कोई बारिश से हुई सर्दी में
तुलसी अदरक के काढ़े का इंतज़ार करता है क्या

क्या अब भी कोई गीली मिट्टी में
सुबह सुबह ग्वार लगाता है क्या

क्या बारिश में विद्यालय ना जाने के बहाने
आज भी कोई बनाता है क्या

और क्या अब भी कोई बारिश के बाद
रेत के टीलों पे घूमने जाता है क्या

और क्या अब भी कोई सावन का इंतज़ार
मेरी तरह करता है क्या

वहाँ बारिश बहुत कम थी पर शौक रहता था
यहाँ बारिश की कमी नहीं पर
माँ की डाँट बिना नहाने का मजा भी कहाँ

मोहन प्यारे

मोहन प्यारे तू सब जाने
खुशियों के आसार बता दे
मोहन प्यारे मन तुझे माने
शांति का आधार बता दे

नन्ही बच्चियाँ क्यूँ मर रही है-२
क्या उनका है कसूर बता दे
मोहन प्यारे

मानव ज्ञानी बहुत हो गया-२
कैसे बढ़े समझ ये बता दे
मोहन प्यारे

सबसे प्यारी रचना तेरी-२
क्यों मानव घातक है बता दे
मोहन प्यारे

कब सब के दिल में बस जाऊँ-२
कब मैं खुद से खुद को हारांऊं
मोहन प्यारे

सागर से नादिया मिलती है-२
कब अपना हो मिलन ये बता दे
मोहन प्यारे

नदिया मीठी, सागर खारा

नदिया मीठी, सागर खारा
अंत तो है, खारा ही खारा
नदिया की तो मंजिल सागर
होना पड़ेगा उसे भी खारा

ठीक वैसे ही समझ मेरे प्यारे
जीवन मीठा, काल है खारा
काल की दस्तक से पहले तू
जीवन करले मीठा सारा

मोह भोग सब लगता मीठा
लेकिन सब जहर सम खारा
संचय उतना मत कर जिससे
अंत हो जाये बिल्कुल खारा

नदिया सम तू बहता चल
जीवन सब को देता चल
गर तू नहीं दे पाया कुछ भी
वैसे भी सब होना है खारा

बैर भाव को तू क्यूँ रखता
क्यूँ करता तू प्रतिस्पर्धा
धारण धैर्य को करके देख
जब चढ़ जाये तेरा पारा

अकड़ अगर तूने करली तो
समझो सबके मन से उतरा
ध्यान तू औरों का भी रख ले
मनभावन होगा तेरा औरा

गर कमाया खुद ही खो देगा
जाने पर तेरे न कोई रोयेगा
जो है थोड़ा देता चल
संचय का न कोई किनारा

कुछ तो ऐसा काम तू करले
जिससे याद करे जग सारा
जीवन मीठा मृत्यु मीठी
तेरे लिए हो ना कुछ भी खारा

ए माँ कैसे भुलाऊँ

ए माँ कैसे भुलाऊँ
हँसती तेरी मुरतिया
मेरे रोम रोम में है
वात्सल्य की वो छाया
ए माँ कैसे भुलाऊँ...

ना होश में रहूँ मैं,
लम्हों को याद करके
उनमें ही मैं खो जाँऊ
जिनमे था तेरा साया
ए माँ कैसे भुलाऊँ...

पिछले जनम का शायद
कोई पुण्य था हमारा
जिससे ही हमने तेरा
आनंदित साथ पाया
ए माँ कैसे भुलाऊँ...

तेरे बिन ये ज़िन्दगानी
क्या होगी कभी ना जानी
तेरी याद इक हंसाए
पल में भिगाए अँखियाँ
ए माँ कैसे भुलाऊँ...

तेरे ऋणी रहेंगे
कर्जों में तूने डाला
माँगी न कौड़ी तूने
निःस्वार्थ प्यार लुटाया
ए माँ कैसे भुलाऊँ...

तेरी एक एक बातें
अब भी हो जैसे ताज़ा
अवसर भले हो कुछ भी
तेरा नाम मन में आया
ए माँ कैसे भुलाऊँ...

हर एक कोना घर का
तेरी याद वो दिलाये
चहक थी तेरे कदम से
सन्नाटा अब है छाया
ए माँ कैसे भुलाऊँ...

तू थी त्याग की वो मूरत
खुद की न कोई चाहत
परिवार खुश रहे बस
इतनी ही थी तेरी दुआ
ए माँ कैसे भुलाऊँ...

ए माँ कैसे भुलाऊँ
हँसती तेरी मुरतिया
मेरे रोम रोम में है
वात्सल्य की वो छाया

जीत

तू क्यूँ नहीं बढ़ पा रहा
चिंता तुझे किस बात की
तू चला चल, रुक नहीं
मिलेगी जल्द ही समृद्धि

औरों से भले ही सीख ले
बजाय उनकी नक़ल के
पहचान अपनी शक्ति को
उत्कृष्ट बन बिन मतलबी

उम्मीद रख और करम कर
कमजोरियों पर कर फतह
हावी न उनको होने दे
गर चाहता है तरक्की

धैर्य रख हिम्मत न खो
रस्ते में मुश्किल आएगी
लड़ना ही है डट के तुझे
नेकी से बढ़ ना कर बदी

जग न बढ़ पायेगा गर
रफ़्तार तेरी रुक गयी
अनगिनत तू से बना
संसार तेरा सुरमयी

तू कुछ समझ ना पायेगा
तेरा वक़्त ज़ल्द ही जाएगा
आदत समझ जो रोके तुझे
निश्चय ही जीत तू पायेगा

मृग तृष्णा

जब भी तुझे
ढूंढे निगाहें
तेरे करीब
खुद को ही पाए

तेरे भरम में
चलता चलूँ में
बदलता फिरूँ में
अक्सर अपनी राहें

जैसे कस्तूरी
हिरण के अंदर ही
नाचे और दौड़े
अंदर ना टटोले

तेरा ही जोगी
ये दिल बन चुका है
समझता नहीं ये
लख समझाए

तेरे साँसों की गर्मी
तेरे छूने की नरमी
ऐसा लगे तू मेरे
पास भरे आहें

तेरा वो आलिंगन
बाँहों की जकड़न
वो माथे पे चुम्बन
तुझे कैसे भुलाये

तेरा ही चेहरा
दिल में बसा है
फैला के खड़ा हूँ
मैं अपनी बाहें

उम्मीद मेरी
ना होगी कभी कम
तू आएगी जल्दी
ये दिल दोहराये

सारे अपने है

कौन तुझको ज़िन्दगी में प्यार करता है
कौन तेरी याद में बेहिसाब रोता है
कौन तुम बिन रात भर इक पल न सोता है
क्यूँ जानना है तुझको जो होना है होता है

कौन तुझको षड़यंत्र में शामिल करता है
ज़िन्दगी को वो खिलौना क्यूँ समझता है
क्यूँ तुझे स्वार्थ से कोई याद करता है
क्यूँ जानना है तुझको जो होना है होता है

दो मुखोटे सामने पीछे क्यों रखता है
क्यूँ कोई तेरी बढ़त से भी भड़कता है
क्यूँ कोई तेरी बात पे संयम को खोता है
क्यूँ जानना है तुझको जो होना है होता है

तू लुटाये जा मोहब्बत सारे अपने है
तू बनाये रखना सबसे सारे अपने है
तू लुटा खुशियाँ जहाँ में सारे अपने है

लफ्जों की चुप्पी

लफ्जों की चुप्पी
मन में हंगामा
कुछ तो है दिल में
जो है न सुनने वाला

मत क्रोध दे
थोड़ा शांत रह
धधकता है शोला
न अभी बुझने वाला

ख्वाब था सुंदर
क्यों नींद टूटी
गर होता पता तो
था मैं कहाँ उठने वाला

वो एक बात है
जो न बदली कभी
मरता था तुझ पे
हूँ ऐसे ही रहने वाला

ना जाने नजर हम पे
किसकी लगी थी
सोचा बहुत, खैर
होता ही है, जो होने वाला

तू ही तो है

तू ही तू है
जिधर देखूं
मेरे दिल में
तू ही तू है

क्या करुं मैं
तुम गई तो
हर जगह पे
फिर भी है तू
हर क्षण में तू
कण कण में तू
मेरा जीवन
तू ही तो है

मेरी काली
रातों में तू
मेरी उजली
किरणों में तू
घाव मेरा
तू ही मरहम
मेरे हर पल की अदा
तू ही तो है

आइना भी तू
चेहरा भी तू
तू उजाला
मेरी छाया
तुझसे हंसी
तुझसे रुन्दन
जीवन की मेरी कश्ती
तू ही तो है

खुशनुमा तू
हर इक मौसम
नज़्म है तू
मेरी कलम
तू ही पहचान
मेरा पतन
रातों में जिससे जागू
तू ही तो है

अश्कों में तू
तू ही मुस्कान
तू ही जीवन
मेरा कफ़न
साँसें मेरी
तू ही धड़कन
मेरे वजह जीने की
तू ही तो है

तू ही जबां
तू ही मनन
तू मेरा तम
तू ही चेतन
मेरी चुप्पी
मेरी खन खन
मेरा सुनहरा पन्ना
तू ही तो है

मेरी ख़ुशी
मेरी घुटन
मेरी जमीं
मेरा गगन
मेरी पूजा
मेरी अजां
मेरे हर पल की मन्नत
तू ही तो है

मेरा विघटन
मेरा संगठन
सार मेरा
मेरा वर्णन
मेरी सब याद
मेरा विस्मरण
सारे मर्जों की दवा
तू ही तो है

मेरा चलना
मेरा रुकना
मेरी उलझन
मेरी सुलझन
मेरा पतझड़
मेरा सावन
मेरी तो सारी ऋतुएं
तू ही तो है

कई दफ़ा

तूझ संग बातें करते करते न जाने कैसे
अपना घर पार कर चुका हूँ कई दफ़ा
दिन भर तुझ में खो के न जाने कैसे
ख़ुद को भुला चुका हूँ कई दफ़ा

प्यारे ढ़ंग से चल रहा था अपना किस्सा
किसी को कानों कान खबर न थी
जब से तू गई है न जाने कैसे
अनजाने में तुझे पुकार चुका हूँ कई दफ़ा

राहत से आहत कोई भला क्यों होने लगा
मुझसे पूछो सन्नाटा दिल में कैसे भरने लगा
ज़िन्दगी चल रही है
न जाने कैसे साँसे चलते हुवे भी
मौत से रूबरू हो चुका हूँ कई दफ़ा

अश्कों का आलम ये हुआ राजा
कि अब तो वो भी मुझसे ख़फ़ा है
तुम्हारी तस्वीरों को देख के रोने वाला अब
न जाने कैसे ठहाके मार के
हँस चुका है कई दफ़ा

कबीर के माला वाले दोहे
अच्छे लगते थे मेरे को भी
मस्ती में मैं भी सुनता था किस्से ऐसे
तेरे जाने के बाद न जाने कैसे
हरी नाम से ज्यादा तुझे लिख चुका हूँ कई दफ़ा

किसी के अल्फ़ाज़ उधार लेके,
सब को हर सवेरे
नित नया सलाम भेजता था
कोई कैसे इतना सब लिख पाता है
ये सब एक मेरे को पहेली लगता था
तेरी जुदाई से न जाने कैसे
मैं ये पहेली सुलझा चुका हूँ कई दफ़ा

आवाजें तो बहुत आई थी मेरे दिल से
कि तुम कैसी हो,
खाना हुआ क्या,
उठ गयी क्या,
गुस्सा है क्या वगैरह वगैरह
जिसे सुन के भी तूने दरकिनार किये होंगे
रास्ते जरूर बदल गये है तेरे और मेरे
मगर दोनों के दिल आज भी ख़ुशामद पूछते होंगे
रिश्तें कहाँ खून के ही निभाए जाते है
ये तुझ से बेहतर कौन जानेगा
वैसे तो तू कुछ नहीं थी मेरी
पर दिल ही दिल में
तुझे अपना हमराही मान चुका था कई दफ़ा

अपनों को धोखा हम दोनों ने ही दिया था
बात बात पे झूठे बहाने बनाने में तो महारत थी
अभी सोचता हूँ कि ये सब क्यों किया
इस चक्कर में खुद को धोका दे चुका हूँ कई दफ़ा

मुसीबतें

ना ज़िन्दगी की छाँव में
है मौत के फैलाव में

मुसीबतें पहाड़ सी
है चिंताओं की धार सी

सर्दियों सी धुंध धुंध
धुँए के गुब्बार सी

न कुछ दिखेगा सामने
है ज़िन्दगी बेजान सी

निराशाऐं है खड़ी
आशाएं अंजान सी

लगेगा डर लपेटने
शाखाओं पे बेल सी

रोये रोये जाएगा
तू भूल जाएगा हंसी

लगेगा कुछ नहीं सही
ख़ामोशीयाँ फैली हुयी

डोलती मझधार में
है नैया मेरी जा फँसी

ये ज़िन्दगी है ज़िन्दगी
कभी है गम कभी ख़ुशी

धैर्य गर तू खो गया
मुश्किल बड़ी है वापसी

रख हौसला, न कर हड़बड़ी
कर्मों के फल की है लड़ी

हरी का इम्तेहान है
करेगा पार ही हरी

आस रख तू , है हरी
बजेगी मधुर बांसुरी

-प्रशांत सेठिया



कमाई

प्यार तुम्हे तब ही मिलेगा
जेब तेरा जब भरा रहेगा
रंग बदलने का ये राज
गर ना होवे कमाई आज

शिक्षा भी हो गयी मोहताज़
संबंध भी कहाँ होते आज
ऊपर से कोसे ये समाज
गर ना होवे कमाई आज

खिल्ली उड़ाए सारा ज़माना
जब गर्भ में आये नन्ही सी जान
पालोगे कैसे बतलाओ साहब
गर ना होवे कमाई आज

श्रमिक से पूछो तो तुम जानो
प्यार क्या होता है पहचानो
उगल देंगे वो सारे राज
गर ना होवे कमाई आज

एहसास कहीं भी रह नहीं पाते
दो वक़्त गुजारा भी कर नहीं पाते
खाना पड़े रोटी और प्याज़
गर ना होवे कमाई आज

रोज़ी रोटी शानों शौकत
और तो और दोस्त मेहमान
सबका पड़ जाए जैसे अकाल
गर ना होवे कमाई आज

बहुत से ऐसे किस्से भी है
सातों वचन जहाँ टूटे है
भाई ले भाई से ब्याज
गर ना होवे कमाई आज

रंज पे तंज कसे घर वाले
गरज का कोई मान न माने
नहीं बन पाए कोई काज़
गर ना होवे कमाई आज

प्यार व्यार मोहब्बत ज़ज़्बात
ज्ञान ध्यान रीति रिवाज़
धीमी पड़ी सारी आवाज़
गर ना होवे कमाई आज

प्यार में मोटी मोटी बातें
फंस जाते है करने वाले
बढ़िया इलाज ना रेल जहाज
गर ना होवे कमाई आज

इक़्तेफ़ाक़ तो नहीं था

मेरे रोम रोम में बस जाना तेरा
इक़्तेफ़ाक़ तो नहीं था
ज़माने से परे तुझ में किनारा मेरा
इक़्तेफ़ाक़ तो नहीं था

जैसे दरिया मेरे इर्द गिर्द ही था
फिर भी प्यासा सो जाना मेरा
इक़्तेफ़ाक़ तो नहीं था

मेरा वजूद तो वैसे आज भी कुछ नहीं
फिर भी तुझ में वजूद तलाशना मेरा
इक़्तेफ़ाक़ तो नहीं था

साकी सा ही था तेरा मुझ संग होना
दुनिया से परे संग पाके तेरा
बेहोश हो जाना मेरा
इक़्तेफ़ाक़ तो नहीं था

पंछी का काम है उड़ना

पंछी का काम है उड़ना और दाना लाना
वो एक काम तो उसे करना ही पड़ेगा
गर जीना है जीवन शान से
तो घरोंदे से बाहर जाना ही पड़ेगा

घरोंदे में आखिर कब तक बैठेगा पंछी
कब तक बाहर के तूफान देखेगा
कभी तो उसे भी सामना करना पड़ेगा
हवा के थपेड़ों के विपरीत उसे भी उड़ना पड़ेगा

उसकी मर्जी भी है
कि वो उड़े या ना उड़े
जाए बाहर घरोंदों से या ना जाए
लेकिन कब तक अपनों के सहारे जीवन बिताएगा

गर ना भरी उड़ान उसने तो
वो उस घरोंदे को ही खा जायेगा
अपनों के भरोसे को वो
तार तार कर जायेगा

दाने बिना जीवन की कल्पना भी श्राप है
बिना उड़ान के दानों की सोच भी पाप है
अपनों का सहारा सहारे बिना कैसे मिलेगा
ये साधारण सोच ही पंछी को उड़ाएगा

मेरी ज़िम्मेदारी से वाकिफ़ हूँ

ज़माने भर की आवाज़ सुनता रहूँगा
ताउम्र कर्म करता रहूँगा
मेरी ज़िम्मेदारी से वाकिफ़ हूँ
मैं दिन रात मेहनत करता रहूँगा

कौन कैसे पेश आते है मुझसे
इनका हिसाब कैसे रखूँ
मेरा काम नहीं ये जनाब
कि किसने क्या कहा उसका जवाब देता रहुँगा
मेरी ज़िम्मेदारी...

मेरे जवाब से भी गर वह शान्त होये
तो समझ भी आये
बिन मतलब की गुफ्तगू में
अपना भेजा क्यों दुखाउंगा
मेरी ज़िम्मेदारी...

हिसाब तो इन सब का इधर ही होगा
में क्यूँ इसमें भागीदार बन जाऊँ
राहत है शांति से जीने में
अशांति मन में क्यूँ फैलाऊंगा
मेरी ज़िम्मेदारी...

अच्छा बुरा फायदा नुकसान
किसी न किसी को तो होयेगा ही
मैं मेरे हिस्से की कमाई से खुश हूँ
यही कोशिश करता रहूँगा
मेरी ज़िम्मेदारी...

गीता का सार भी तो यही है
कर्मों का जाल बुनता चलूँ
रास्ते तो निश्चित ही कठिन होंगें
अपने को मुकम्मल बनाता चलूँगा
मेरी ज़िम्मेदारी...

गर खुश हो तो, खुश रहो

हमसे रुख़सत होके भी गर खुश हो तो, खुश रहो
हमें दरकिनार करके भी गर खुश हो तो, खुश रहो
ख़ामोशी तो खाये जा रही है तुम्हारी मुझे
सिर्फ मुझसे ही खामोश होने में
गर खुश हो तो, खुश रहो

हालात कैसे भी रहे हों मेरे
मैं हर हाल में तेरे साथ था
मुझे बेवजह छोड़ के जाने में
गर खुश हो तो, खुश रहो

शहर की चकाचौंध नहीं लगी मुझे
आज भी तेरी हरएक अदा याद है
पता नहीं क्यों मुझे यूँ भुलाने में
गर खुश हो तो, खुश रहो

मैं दोष किसको दूँ तेरी इन खताओं का
मेरे आसपास तो मैं भी नहीं रहता
मुझसे मेरी ज़िन्दगी यूँ छीनके
गर खुश हो तो, खुश रहो

शायरियाँ

क्यों नहीं हँस पाते है लोग,
चाहते नही हैं या है परिस्थिति का बोझ
कोशिश जारी रख ए मेरे दोस्त जंग ए मैदान है ये जिंदगी
मुस्कान लब पे रख और चला चल हर रोज

मिलकियत तुम्हारी किस पे क्या होगी
खाली हाथ ही तो आये थे जैसे सब आये थे
दावा तो ऐसे करते हो हर किसी पे जैसे
तुम्हारे बिन ये दुनिया कदम कैसे बढ़ाएगी

मुझे पता है मेरा एक भी कलमा
तेरे तक नहीं पहुँचा होगा तूने देखा तो जरूर पर पढ़ा न होगा दरकिनारी की हद तो देखो राजा सैंकड़ो सलाम भेजे होंगे मजाल है सामने से एक सलाम भी आया होगा

खुला फीता

दफ्तर के लिए घर से निकला ही था
और जूतों पे फीता कसना भूल गया
मैं तो सिर्फ इतना ही भुला था इस शहर में
खैर, सड़क के किनारे अचानक से देखा तो लगा
जैसे दोनों फीते आपस में इशारों में बातें कर रहे हो
या जैसे भोला बालक हाथ हिलाते चला जा रहा कहीं
बेफिक्र में जैसे अपनी ही मस्ती में कहीं
कभी दाएं तो कभी बाएं देखता हुआ
जूतों से बाहर जाने की कोशिश तो न थी कहीं फितों की
गर ऐसा था तो कुछ गजब ही होने वाला था
जूतों को धारण किये मैं गिरने वाला था
इसका दोष गर फीतों को दे तो बेवकूफी होगी
फ़ीते कभी भी खुद से नहीं बंधने वाले
खुला छोड़ना अच्छी बात है बांधना नहीं
पर खुला छोड़ने पे गर कोई गिर जाए तो
नसीहत यही सही होगी कि कसना भी जरुरी है
मेरे पास दूसरा पहलु भी था इसका
की गर में इनको न कसता
तो यह मेरी ज़िम्मेदारी है
की संभल के चलूँ

जवानी अपने बचपने में थी

जवानी अपने बचपने में थी
और चलने की कोशिश मे थी
बार बार गिर के
खड़े होना सिख रही थी

कोई भी रंग उसे भा रहा था
मानो इंद्रधनुष आसमाँ में हो
काले सफ़ेद में भेद किये बिना
सारा समय कुछ न कुछ खेलने में थी

जवानी का बचपन बीतने आया था
गठरिया जिम्मेदारियों की लद चुकी थी
समझ में आये कि क्या चल रहा है
तब तक रंगत बदल चुकी थी

तुतलाती भाषा जवानी की मानो
परिपक्व आवाज़ बन चुकी थी
वही चेहरे नई फितरतें रोज़ सामने आती
सबको भाँपने की जैसे आदत बन चुकी थी

जिस रंग के खेल खेले थे
तस्वीर उसी से बन रही थी
जिसको जो रंग पसंद थे
परख उसी से हो रही थी

रिश्ते फ़रिश्ते ऐसे ही काम नहीं आते
कीमत सबको चुकानी पड़ रही थी
जवानी अब जवान हो चुकी थी
सुई हो घड़ी की जैसे दौड़ रही थी

प्रकाश है तो परछाई भी होगी
ऊपर से कम पर किनारे से ज्यादा होगी
जवानी का भी किनारा आने को था
और एक दिन रात हो चुकी थी

एहसास मानो खो चुके थे
जैसे पतों में से रंग
आँधियों संग पेड़ से गिरने ही वाले थे
और तभी पानी की आस में पत्ता गिर चुका था

पत्ता गिरने के बाद हवा का साथी बन चुका था
पानी से भीगने पे माटी बन चुका था
मिटटी बनना तय था उसका
उसके गिरने से पहले की धुप
या गिरने के बाद की बारिश
इन पे गौर मत कर राजा
ज़िन्दगी भी ऐसे ही होगी गौर इसपे कर
फिर ऐसा मत कहना समय निकल चुका था

तैयारी कर रहे है

उम्र कट जाएंगी बिना ज़िन्दगी के
पता नहीं लोग किस ज़माने में जीने की तैयारी कर रहे है

जवानी का दरिया बह जाएगा जनाब यह समय की ढलान है
पता नहीं लोग कौनसे समंदर पार करने की तैयारी कर रहे है

रंगत बदलती रहती है हर एक मौसम में ज़मीन की
जीवन है तो सुख दुःख रहेंगे
पता नहीं लोग कौनसे परम सुख पाने की तैयारी कर रहे है

शरीर है तो बीमारी भी होगी
ये सब तो चलते रहेंगे
पता नहीं लोग कौनसी संजीवनी लाने की तैयारी कर रहे है

नगमा तो कंठों से ही निकलेगा
बिन एहसास क्या वे मजा दे पाएंगे, फिर भी
पता नहीं लोग कौनसा सुर लगाने की तैयारी कर रहे है

यकीं नहीं आता तो

तकलुफ तुम्ही से रखता हूँ
इसलिए दिन रात परेशान करता हूँ
यकीं नहीं आता तो मेरे पड़ोस वाले चाचा से पूछ लेना
कि मेरी उनसे आखरी बात कब हुयी थी

खामोशियाँ तन्हाईयाँ ज़िन्दगी में गर है
मतलब कोई तो है जिसके होने की उपस्थिति नहीं रही
यकीं नहीं आता है तो मेरे बर्ताव से पूछ लेना
कि बिना चिड़चिड़ेपन के आखरी बात कब हुयी थी

सवेरे से सांझ तक आँखें किसको तलाशती है
यह सवाल आखिरी दम तक रहेगा
यकीं नहीं आता है तो मेरी रातों से पूछ लेना
कि बेफ़िक्री की नींद आखिरी बार कब ली थी

प्यार करना और प्यार पाना जैसे आसमाँ और ज़मीन है
जुड़े हुए दिखते जरूर है दूर से किन्तु है नहीं
यकीं नहीं आता है तो मेरी आदतों से पूछ लेना
कि किसी ने उसकी तारीफ आखरी बार कब की थी

मैं क्षुब्ध था

मैं क्षुब्ध था, आहत भी,
तेरी कसम ना राहत थी,
हंसी के लिए तेरे मैं थम गया
ऐसा नहीं मुझमें जुनूँ कम था।

यादों को तेरी सारी मिटाके
सोचा था तुझको भुला पाएंगे
कम्बख्त दिल माना नहीं
और कर ना पाया मुझसे वफ़ा
मैं क्षुब्ध था...

तेरी हंसी तेरी वो मस्तियाँ
ज़िन्दगी वही थी मेरे लिए
अब तो मैं साँसें ले रहा हूँ
जीना जैसे मैं भूला दिया
मैं क्षुब्ध था...

जिम्मेदारियों से मैं बंधा था
इसके लिए अब तक जी रहा हूँ
गर मैं अकेला होता तो
तुम भी कब की हो चुकी होती तनहा
मैं क्षुब्ध था....

बात ही कुछ और थी


ज़िन्दगी बहुत ही हसीं थी जनाब
पैसे देके भी वो मजे नहीं है शहर में
बिन पैसे के किये मजों की
बात ही कुछ और थी

घर पे छोटी साइकल थी
अधे को किराये पे बीकानेर की घाटियों में घुमाने की
बात ही कुछ और थी

महँगी चॉकलेट्स भाई नेपाल से भेजा करता था
पर स्कूल और क्लास के बाहर
एक रुपये की चार फाँकों की
बात ही कुछ और थी

लॉन्ग वेकेशन में हॉलिडे बुक नहीं होते थे जनाब
बचपन के दोस्तों संग दिन भर खेलने की
बात ही कुछ और थी

जन्मदिन पर केक तो बहुत बाद में आने लगे थे जनाब
प्रसाद के बाद छोटू मोटू के रसगुल्लों और समोसों की
बात ही कुछ और थी

होटलों का खाना तो शहर आके ही देखा था जनाब
साल में कभी कभार आनंद के डोसों की
बात ही कुछ और थी

फल रसाल से छबड़ी भरी रहती है जनाब
उस वक़्त तो भुआ की बिहार से लायी हुयी लिच्ची की
बात ही कुछ और थी

एक घर में कम से कम दस गेंद मिल जायेगी अभी
पर दस जन मिलके एक गेंद लाके खेलने की
बात ही कुछ और थी

अभी होली पे बन्दे रिसोर्ट की बुकिंग करवाते है जनाब
सांग बन के इकट्ठे किये पैसो से गोठ की
बात ही कुछ और थी

अभी के बच्चों जैसे नाटक कहाँ थे खाने में जनाब
वो घर के खाने की
बात ही कुछ और थी

डोनट पिज़्ज़ा या गार्लिक ब्रेड इतने तो नाम भी पता थे
सर्दी में फेंणा रोटी और गर्मी में राबड़ी की
बात ही कुछ और थी

कोई भी फंक्शन अब कैटरिंग वाले को दे देते है
खुद से खातिर कर के अंत में खाने की
बात ही कुछ और थी

एप से बुक की हुयी गाड़ी सीधे घर के नीचे जाती है
घर के आगे ऑटो के मिलने की
बात ही कुछ और थी

बचा हुआ खाना इधर डस्तबिन में जाता है जनाब
गाय कुत्ते को खिलाने के सुकून में
बात ही कुछ और थी

अलार्म से बंद कमरों में एसी के नीचे आँख खुलती है
चिड़ियों के चहकने से उठने की
बात ही कुछ और थी

गीजर से नल में सीधा गर्म पानी आता है जनाब
तपेली में चूल्हे पे किये गर्म पानी की
बात ही कुछ और थी